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अनुप्रेक्षा (भावना)
इस प्रकार संसार के स्वरूप को जानकर सर्व प्रकार उद्यम कर मोह को छोड़ हे भव्य (मोक्षार्थी), उस आत्म स्वभाव का ध्यान कर जिससे संसार के भ्रमण का नाश हो।
4. एकत्व भावना इस संसार में स्त्री, पुत्र, मित्र-बन्धु, धन-सम्पत्ति आदि से घिरे होने और उनके प्रति ममत्व-भाव रखने के कारण यह जीव अपने एकत्व-भाव को भुला देता है। कुटुम्ब-परिवार को अपना समझकर उनके लिए वह जो-जो कर्म करता है उन सबका फल उसे अकेले ही भोगना पड़ता है। इस सचाई का बार-बार चिन्तन करना ही एकत्व भावना है।
इस भावना के हृदय में भली-भाँति बैठ जाने पर मनुष्य सांसारिक विषयों से अनासक्त हो जाता है और उसे सहज ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।
जीव के अकेलेपन को स्पष्ट करते हुए पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में कहा गया है: यह जीव सदा का अकेला है। परमार्थदृष्टि से इसका मित्र कोई नहीं है। अकेला आया है, अकेला दूसरी योनि में चला जावेगा। अकेला ही बूढ़ा होता है, अकेला ही जवान होता है और अकेला ही बालक होकर क्रीड़ा करता फिरता है। अकेला ही रोगी होता है, अकेला ही दुःखी होता है, अकेला ही पाप कमाता है और अकेला ही उसके फल को भोगता है। बंधुवर्गादिक कोई भी श्मशान भूमि से आगे के साथी नहीं हैं, एक धर्म ही साथ जानेवाला है।
जिन-वाणी में भी जीव का अकेलापन दिखलाते हुए ऐसे ही भाव प्रकट किये गये हैं:
जीव अकेला उत्पन्न होता है, अकेला ही गर्भ में देह को ग्रहण करता है, अकेला ही बालक व जवान होता है और अकेला ही जरा-ग्रसित वृद्ध होता है।
अकेला ही जीव रोगी होता है, शोक करता है तथा अकेला ही मानसिक दुःख से तप्तायमान होता है। बेचारा अकेला ही मरता है और अकेला ही नरक के दुःख भोगता है।