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जैन धर्म : सार सन्देश
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से बचने के लिए जीव को संसार के इस स्वरूप का बार-बार चिन्तन करते हुए उसके प्रति मोह या आसक्ति का त्याग कर देना चाहिए और आत्मतत्त्व का ध्यान कर आवागमन से मुक्त होने का प्रयत्न करना चाहिए। इसे समझाते हुए शुभचन्द्राचार्य कहते हैं:
ये जीव अपने-अपने कर्मरूपी बेड़ियों से बँधे स्थावर (अचर) और त्रस (चर) शरीरों में संचार करते हुए मरते और उपजते हैं।
यह यंत्रवाहक (कर्मों के लेख को लिए हुए चलनेवाला प्राणी) संसार में अनेक रूपों को ग्रहण करता है और अनेक रूपों को छोड़ता है । जिस प्रकार नृत्य के रंगमंच पर नृत्य करनेवाला भिन्न-भिन्न स्वाँगों को धरता है, उसी प्रकार यह जीव निरन्तर भिन्न-भिन्न स्वाँग (शरीर) धारण करता रहता है ।
इस संसार में यह प्राणी कर्मों से बलात् वंचित हो (ठगा हुआ) राजा से तो मरकर कृमि (लट) हो जाता है और कृमि से मरकर क्रम से देवों का इन्द्र हो जाता है । इस प्रकार परस्पर ऊँची गति से नीची गति और नीची से ऊँची गति पलटती ही रहती है ।
इस संसार में प्राणी की माता तो मरकर पुत्री हो जाती है और बहन मरकर स्त्री हो जाती है, और फिर वही स्त्री मरकर आपकी पुत्री भी हो जाती है । इसी प्रकार पिता मरकर पुत्र हो जाता है तथा फिर वही मरकर पुत्र का पुत्र हो जाता है। इस प्रकार परिवर्तन होता ही रहता है ।
इसका संक्षेप यह है कि संसार का कारण अज्ञानभाव है। अज्ञानभाव से परद्रव्यों में मोह तथा रागद्वेष की प्रवृत्ति होती है। रागद्वेष की प्रवृत्ति से कर्मबन्ध होता है और कर्मबन्ध का फल चारों गति में भ्रमण करना है। 12
जिन - वाणी में भी संसार के स्वभाव को संक्षेप में बतलाकर आत्मस्वरूप का ध्यानकर संसार से मुक्त होने का उपदेश इन शब्दों में दिया गया है:
जीव एक शरीर को छोड़ता है और दूसरा ग्रहण करता है, फिर नया ग्रहण कर पुनः उसे छोड़ अन्य ग्रहण करता है । ऐसे बहुत बार ग्रहण करता और छोड़ता है।