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अनुप्रेक्षा (भावना)
अपने कर्मों के अनुसार जीव अनेक योनियों में जन्म लेता है और प्रत्येक योनि में वह गर्भावस्था से ही मृत्यु की ओर बढ़ता जाता है। मृत्यु की घड़ी आ जाने पर उसे कोई भी बचा नहीं सकता। वास्तव में इस संसार में जीव का कोई शरण है ही नहीं। केवल धर्माचरण करनेवाली आत्मा स्वयं और उसे धर्म की शिक्षा-दीक्षा देनेवाले धर्मगुरु-ये ही जीव के शरण हैं। इसे स्पष्ट करते हुए शुभचन्द्राचार्य कहते हैं:
हे मूढ प्राणी! आयुनामा कर्म जीवों को गर्भावस्था ही से निरन्तर प्रतिक्षण अपने प्रयाणों से (मंज़िलों से) यम मंदिर की तरफ ले जाता है सो उसे देख!
जब मृत्यु (काल) आती है, तब इस जीव को कोई भी नहीं बचा सकता है। ___कोई ऐसा समझता होगा कि मृत्यु से बचानेवाला कोई तो इस जगत में अवश्य होगा, परन्तु ऐसा समझना सर्वथा मिथ्या है, क्योंकि काल से-मृत्यु से रक्षा करनेवाला न तो कोई हुआ और न कभी कोई होगा।
यदि निश्चय दृष्टि से विचारा जाये, तो अपनी आत्मा ही का शरण है और व्यवहार दृष्टि से विचार किया जाय तो परंपराय (गुरु शिष्य की परम्परा से चले आते हुए) सुख के कारण वीतरागता को प्राप्त हुए पंचपरमेष्ठि का ही शरण है; क्योंकि ये वीतरागता के एकमात्र कारण हैं, अतएव अन्य का शरण छोड़कर उक्त दो ही शरण को विचारना चाहिए-(आत्मा जो धर्माचरण करती है और सतगुरु जो उसे धर्म का
ज्ञान देते हैं)। 3. संसार भावना जीव अपने अज्ञानवश जो कर्म करता है उसके अनुसार उसे अनेक योनियों में जन्म लेना पड़ता है। भले-बुरे कर्मों में उलझे जीव का जन्म-मरण का सिलसिला सदा चलता रहता है। इसे ही संसार कहते हैं। अपने कर्मों के कारण ही जीव कभी ऊँची और कभी नीची योनि में जन्म लेता है। संसार के इस चक्र