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जैन धर्म : सार सन्देश
2. अशरण भावना जीव को इस संसार में कहीं भी शरण नहीं है; उसे कोई भी शरण देनेवाला या बचानेवाला नहीं है। अपने भ्रमवश यह कुछ लोगों को आत्मीय या अपना समझता है और उनसे अपनी रक्षा की आशा रखता है। पर जब उसे अपने कर्मों का भुगतान करते हुए दुःख भोगना पड़ता है, तब कोई भी उसके दुःख को बाँट नहीं सकता। जब मृत्यु का समय आता है, तब स्त्री, पुत्र, भाई-बन्धु आदि आत्मीयजन तथा अंगरक्षक, सेना आदि सभी देखते ही रह जाते हैं। कोई भी उसे बचा नहीं सकता। इस सचाई का बार-बार चिन्तन करना ही अशरण भावना है। ___ इसे भली-भाँति समझकर मनुष्य को केवल धर्म की शरण लेनी चाहिए
और आत्मतत्त्व की पहचान कर संसार के अनित्य वस्तुओं से सदा के लिए छुटकारा पा लेने का प्रयत्न करना चाहिए। इस प्रयत्न में पंचपरमेष्टी (अरहंतसिद्ध-आचार्य-उपाध्याय-साधु), अर्थात् सच्चे धर्मगुरु उसके सहायक बन सकते हैं।
ये बातें अनेक जैन ग्रन्थों में बतायी गयी हैं। उदाहरण के लिए, पुरुषार्थसिद्ध्युपाय में अशरण भावना को इस प्रकार समझाया गया है:
जैसे निर्जन वन में सिंह से पकड़े हुए हरिण के बच्चे को कोई भी शरण नहीं है अथवा कोई भी रक्षा करनेवाला नहीं है, उसी प्रकार इस संसाररूपी गहन वन में मृत्यु से पकड़े हुए जीव को कोई शरण नहीं है।' ...
इस प्रकार कोई भी सांसारिक व्यक्ति या वस्तु जीव की रक्षा नहीं कर सकता। केवल जीव का धर्माचरण ही जीव की रक्षा कर सकता है। इसलिए जीव को अपनी रक्षा के लिए क्षमा, मार्दव (कोमलता), शौच (पवित्रता), सत्य, संयम आदि दशलक्षणरूप धर्म का आचरण करना चाहिए। जिन-वाणी में स्पष्ट कहा गया है:
जो आपको क्षमादि दशलक्षणरूप (धर्म) भाव से परिणत (परिवर्तित) करे वही अपना आप शरण है। 10