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अनुप्रेक्षा (भावना)
241 नहीं आयेगी। इसी प्रकार अगली घड़ी भी जो व्यर्थ ही खो दोगे तो वह भी गयी हुई नहीं लौटेगी।
देखो! इन जीवों का प्रवर्तन (बदलाव) कैसा आश्चर्यकारक है कि शरीर तो प्रतिदिन छीजता जाता है और आशा नहीं छीजती है; किन्तु, बढ़ती जाती है। तथा आयुर्बल तो घटता जाता है और पापकार्यों में बुद्धि बढ़ती जाती है। मोह तो नित्य स्फुरायमान होता है और यह प्राणी अपने हित व कल्याण मार्ग में नहीं लगता है। सो यह कैसा अज्ञान का माहात्म्य है?
जिस प्रकार नदी की जो लहरें जाती हैं, वे फिर लौटकर कभी नहीं आती हैं; इसी प्रकार जीवों की जो विभूति (महिमा या महत्ता) पहले होती है, वह नष्ट होने के पश्चात् फिर लौटकर नहीं आती। यह प्राणी वृथा ही हर्ष-विषाद करता है।
नदी की लहरें कदाचित् कहीं लौट भी आती हों, परन्तु मनुष्यों का गया हुआ रूप, बल, लावण्य और सौन्दर्य फिर नहीं आता। यह प्राणी वृथा ही उनकी आशा लगाये रहता है।
जीवों का आयुर्बल तो अञ्जलि के जल समान क्षण-क्षण में निरन्तर झरता है और यौवन कमलिनी के पत्र पर पड़े हुए जलबिंदु के समान तत्काल ढलक जाता है। यह प्राणी वृथा ही स्थिरता की इच्छा रखता है।
इससे यह स्पष्ट है कि संसार और शरीर ऊपर से जैसे लगते हैं, वास्तव में वैसे नहीं हैं। जो नित्य और सुखद मालूम पड़ते हैं, वे वास्तव में अनित्य और दुःखद हैं। इस संसार में सर्वत्र द्वैतभाव या विरोधीभाव पाया जाता है। जन्म के साथ मृत्यु, संयोग के साथ वियोग, संपदा के साथ विपदा और सफलता के साथ विफलता लगी हुई है। इसलिए हमें संसार और शरीर के यथार्थ स्वभाव का बार-बार चिन्तन करते हुए कभी भी इनमें आसक्त नहीं होना चाहिए। इस प्रकार के चिन्तन या भावना से ज्ञान और वैराग्य की वृद्धि होती है और साधक को आत्म-स्वरूप को पहचानने और मोक्ष की प्राप्ति करने में सहायता मिलती है।