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________________ 240 जैन धर्म : सार सन्देश काया तो दुःख और मरण की जननी है - दुःख और मरण इसी भूमि से उत्पन्न होते हैं। यदि काया (देह) न हो तो आत्मा को दुःख भी न उठाने पड़ें और मरण भी न हो सके। जब काया के साथ आत्मा का सम्बन्ध है तो फिर दुःख अथवा मरण के उपस्थित होने पर, जिनका सम्बन्धावस्था में होना अवश्यम्भावी है, बुधजनों को शोक नहीं करना चाहिए। प्रत्युत (विपरीत) इसके उन्हें तो नित्य ही निराकुल ( शान्त) होकर बहिरात्म- बुद्धि के त्यागपूर्वक आत्मस्वरूप का - -अपनी मुक्ति का—विचार करना चाहिए, जिससे दुखदायी देह का पुनः पुनः जन्म ही सम्भव नरहे । जिसने जन्म लिया है वह मृत्यु का दिन आने पर निश्चित रूप से अवश्य ही मरता है, तीन लोक में भी फिर उसका कोई रक्षक नहीं होता - उसे मौत से नहीं बचा सकता । अतः जो मनुष्य अपने प्रिय स्वजन के मरने पर शोक करता है वह निर्जन वन में विलाप करके रोता है - निर्जन वन का विलाप जैसे व्यर्थ होता है वैसे ही उसका वह शोक भी व्यर्थ है, उस पर कोई ध्यान देनेवाला नहीं । यह सुनिश्चित है कि अपनी आयु यम से अति ही पीड़ित है - काल से बराबर हनी जा रही है। इस तरह आयु का विनाश होते देखकर भी जो मनुष्य अपने को स्थिर - अमर मान रहा है - निरन्तर काल के गाल में चले जाने का जिसे ख़याल ही नहीं होता - वह कैसे अज्ञानी नहीं है ? अवश्य ही अज्ञानी है - जड़बुद्धि है ।' शुभचन्द्रचार्य ने भी बड़े ही प्रभावपूर्ण ढंग से इस शरीर की अनित्यता दिखलायी है । वे कहते हैं: इस लोक में राजाओं के यहाँ जो घड़ी का घंटा बजता है और शब्द करता है, सो सबके क्षणिकपन को प्रगट करता है; अर्थात् जगत् को मानो पुकार पुकारकर कहता है कि हे जगत के जीवों ! जो कुछ अपना कल्याण करना चाहते हो, सो शीघ्र ही कर डालो, नहीं तो पछताओगे। क्योंकि यह जो घड़ी बीत गयी, वह किसी प्रकार भी पुनर्वार लौटकर
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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