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________________ अनुप्रेक्षा (भावना) तरुणहट्टा-कट्टा नौजवान - भी शीघ्र ही नाश को प्राप्त हो जाता है; औरों की तो बात ही क्या ? जब संसार में सार रूप से माने जानेवाले धन और जीवन दोनों की ही ऐसी क्षणभंगुर स्थिति है तब बुधजनों को किसे पाकर मद करना चाहिए ? - कहीं भी उनके मद के लिए स्थान नहीं है, विधि के चक्कर में पड़कर दम भर में सारे मद का चकनाचूर हो जाता है I धन, स्त्री और पुत्रादि की हालत उन दीपकों के समान है जो ऊँचे पर्वत की चोटी पर रखे हुए पवन से काँप रहे हैं और दम भर में बुझ जाने की स्थिति में हैं। ऐसे क्षणभंगुर धनादिक को पाकर जो मनुष्य घमण्ड करता है- अभिमानी बन रहा है - वह प्रायः पागल हुआ मुक्का - घूसा मारकर आकाश को हनना चाहता है! व्याकुल हुआ सूखी नदी को तिरने को चेष्टा करता है ! और प्यास से पीड़ित हुआ मृगमरीचिका को पीने का उद्यम करता है! ये सब कार्य जिस प्रकार व्यर्थ हैं और इन्हें करनेवाले किसी भी मनुष्य के पागलपन को सूचित करते हैं, उसी प्रकार स्त्री-पुत्र-धनादिक को पाकर अहंकार (गर्व) करना भी व्यर्थ है और वह अहंकारी के पागलपन को सूचित करता है । " 239 मनुष्य का सबसे घनिष्ठ सम्बन्ध और उसकी सबसे गहरी आसक्ति अपने शरीर से होती है, जिसे वह रोज़ सँवारता - सिंगारता है और जिसके सुख-आराम लिए अनेक उपाय और अथक प्रयत्न करता है । वह भूल जाता है कि उसका शरीर नश्वर है, जीव का बन्धन है और दुःख का कारण है। वह अपनी सुन्दरता, शक्ति और सामर्थ्य का अभिमान करता है, पर काल के सामने उसका कुछ भी ज़ोर नहीं चलता। अपने प्रियजनों की मृत्यु पर वह नाहक रोता-बिलखता है और अपनी मृत्यु को, जिसे टाला नहीं जा सकता, भुलाये रहता है। जीवन की अनित्यता पर उचित ध्यान न देने के कारण वह अपने दुर्लभ मनुष्य-जीवन के अनमोल समय को व्यर्थ ही गँवाकर संसार से चला जाता है । संसार की अनित्यता के सम्बन्ध में आचार्य पद्मनन्दि के विचारों का उल्लेख हम पहले कर चुके हैं। अब हम शरीर की अनित्यता के सम्बन्ध में उनके विचारों को नीचे प्रस्तुत करते हैं। शरीर की अवस्था के सम्बन्ध में वे कहते हैं:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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