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________________ जैन धर्म : सार सन्देश मनुष्य - शरीर पाकर शरीर से सदा के लिए छुटकारा पा लेने में ही आत्म-कल्याण है। 250 7. आस्रव भावना काय, वचन और मन द्वारा जीव जो शुभ ( प्रशस्त) और अशुभ ( अप्रशस्त ) कर्म करता है उसके अनुसार ही उसमें पुण्य और पाप के विकार प्रवेश करते हैं। जैसे, अहिंसा, सत्य आदि शुभ कर्मों से पुण्य और हिंसा, असत्य आदि अशुभ कर्मों से पाप के विकार जीव में प्रवेश करते हैं। इन शुभ और अशुभ कर्मों से उत्पन्न विकारों का जीव में प्रवेश करना ही आस्रव कहलाता है। पुण्य और पाप - दोनों का आस्रव जीव के लिए बन्धनकारी है। ऐसे बन्धनकारी आस्रव के स्वरूप का बार-बार चिन्तन करना ही आस्रव भावना है। इस प्रकार का चिन्तन जीव को पुण्य और पाप से ऊपर उठकर अनासक्त होने और आत्मस्वरूप के ध्यान में लगने के लिए प्रेरित करता है । आत्मस्वरूप के ध्यान से पापप-पुण्य का प्रवाह या आस्रव रुक जाता है, जो कर्मों से छुटकारा पाने के लिए आवश्यक है । आस्रव के सम्बन्ध में बतलाते हुए जिन-वाणी में कहा गया है: कर्म पुण्य तथा पाप रूप से दो प्रकार का होता है । उसके कारण भी दो प्रकार के हैं - प्रशस्त (शुभ) और इतर अर्थात् अप्रशस्त (अशुभ) । मन्द कषाय (अल्प विकार) रूप परिणाम ( परिवर्तन) प्रशस्त और तीव्र कषायरूप परिणाम अप्रशस्त कर्मास्रव के कारण हैं। 24 शुभचन्द्राचार्य ने शुभ और अशुभ कर्मों के आस्रव को इन शब्दों में स्पष्ट किया है: जैसे समुद्र में प्राप्त हुआ जहाज छिद्रों से जल को ग्रहण करता है, उस ही प्रकार जीव शुभाशुभयोगरूप छिद्रों से ( मनवचनकाय से) शुभाशुभकर्मों को ग्रहण करता है। 25 संक्षेप में, बन्धनकारी कर्मों का जीव में प्रवेश करना ही आस्रव है। इस बात का बार-बार चिन्तन करना और इस बात को भली-भाँति चित्त में बिठा
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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