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जैन धर्म : सार सन्देश टीकाग्रन्थ लिखे गये। इस प्रकार जैन धर्म का निश्चित रूप स्थापित हो गया और इसकी परम्परा को जारी रखना आसान हो गया।
महावीर स्वामी के पहले आनेवाले तीर्थंकर ऋषभदेव को जैन धर्म का प्रथम तीर्थंकर माना जाता है। इन्हें आदिनाथ भी कहते हैं। ये चौदहवें मनु नाभिराज और उनकी पत्नी मरुदेवी के पुत्र थे। ऋषभदेव ने अयोध्या के राजा के रूप में बहुत समय तक राज्य किया। एक अत्यन्त नेक, सुयोग्य और प्रभावशाली शासक का आदर्श निभाते हुए इन्होंने भारतीय सभ्यता को बहुत आगे बढ़ाया। बाद में अपने ज्येष्ठ पुत्र भरत को राज्य का भार सौंपकर इन्होंने संन्यास ग्रहण कर लिया। कठिन साधना द्वारा केवल ज्ञान की प्राप्ति कर वे जैन धर्म के प्रथम तीर्थंकर बने। अपने धर्म में इन्होंने अहिंसा को प्रमुख स्थान दिया। इनके पुत्र भरत अत्यन्त वीर, प्रतापी और कुशल चक्रवर्ती राजा हुए। उन्हीं के नाम पर यह देश भारतवर्ष के नाम से प्रसिद्ध हुआ। इसका उल्लेख स्कन्द पुराण में इस प्रकार किया गया है:
नाभेः पुत्रश्च ऋषभः ऋषभात् भरतोऽभवत्।
तस्य नाम्ना त्विदं वर्ष भारतं चेति कीर्त्यते॥ अर्थात् ऋषभ नाभि के पुत्र थे और ऋषभ से भरत उत्पन्न हुए, जिनके नाम से यह देश भारतवर्ष कहा जाता है। ऋषभदेव के पुत्र राजा भरत का उल्लेख स्कन्दपुराण, भागवत पुराण, मार्कण्डेय पुराण, विष्णु पुराण, ब्रह्माण्ड पुराण आदि में पाया जाता है। __ प्राचीन भारतीय इतिहास से पता चलता है कि पुराणों के समय से पहले ईसा पूर्व पाँचवीं शताब्दी में भी ऋषभदेव की मूर्ति की पूजा की जाती थी। कलिंग राजा खारवेल ने ईसा पूर्व 161 में मगध पर दूसरी बार चढ़ाई की थी। इस चढ़ाई में विजय प्राप्त करने पर वे वहाँ से बहुत सा क़ीमती सामान लेकर लौटे थे जिसमें आदि जिन ऋषभदेव की एक मूर्ति भी थी। इस मूर्ति को मगध राजा नन्द लगभग 300 साल पहले उस समय के कलिंग के राजा को हराकर ले गये थे।