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जैन धर्म की प्राचीनता
इन दोनों सम्प्रदायों के बीच मूल सिद्धान्तों के सम्बन्ध में कोई मतभेद नहीं है। दोनों ही महावीर स्वामी और अन्य तीर्थंकरों को मानते हैं और उनके उपदेशों में श्रद्धा रखते हैं । केवल आचार-विचार की कुछ गौण बातों को लेकर ही इनमें मतभेद है। प्रधान रूप से इनका मतभेद इन बातों को लेकर है: 1. दिगम्बर सम्प्रदाय के विपरीत श्वेताम्बर सम्प्रदाय की मान्यता है कि जिस प्रकार पुरुष को मोक्ष का अधिकार है, उसी प्रकार स्त्री भी मोक्ष की अधिकारिणी है ।
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2. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार केवली भगवान् भी कवल (कौर, ग्रास) आहार करते हैं। दिगम्बर परम्परा के अनुसार केवली को भूख-प्यासादि की वेदना नहीं होती । वे बिना भोजन के जीवन निर्वाह करते हैं । 3. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार यदि साधु- संयम में सहयोगी आवश्यक उपकरणों (वस्त्र, पात्र आदि) को रखता है तो भी वह मोक्ष का अधिकारी हो सकता है पर दिगम्बर परम्परा के अनुसार वस्त्र, पात्र आदि धारण करनेवाला साधु मोक्ष का अधिकारी नहीं हो सकता ।
4. श्वेताम्बर परम्परा के अनुसार माता-पिता के आग्रह पर महावीर स्वामी का विवाह हुआ । दिगम्बर परम्परा के अनुसार महावीर अविवाहित ही रहे ।
5. श्वेताम्बर आचारांग, सूत्रकृतांग आदि मूल द्वादशांगी को स्वीकार करते हैं और यह मानते हैं कि बारह अंगों में से अंतिम अंग दृष्टिवाद आज उपलब्ध नहीं है, पर शेष आगम आज भी उपलब्ध हैं । दिगम्बर सम्प्रदाय के अनुसार काल के दुष्प्रभाव से सारे ही आगम लुप्त हो गये। वे वर्तमान में उपलब्ध आगमों की प्रामाणिकता को नहीं स्वीकार करते । धीरे-धीरे समय के साथ ये दोनों शाखाएँ अनेक उपशाखाओं में विभक्त हो गयीं ।
जैन धर्मग्रन्थों को अन्तिम रूप देने के लिए आचार्य देवर्द्धि के नेतृत्व में जैन संघ का दूसरा सम्मेलन ईस्वी सन् 454 में वलभी में बुलाया गया। इस सम्मेलन में एकमत से निश्चित किये गये धर्मग्रन्थों को लिखित रूप दे दिया गया। बाद में इन ग्रन्थों पर आधारित और भी स्वतन्त्र ग्रन्थ, भाष्य और