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जैन धर्म : सार सन्देश
अर्थात् यही तीन महावीर के बाद लगातार एक के बाद एक केवल ज्ञान प्राप्त करनेवाले हुए। इनके बाद कोई अनुबद्ध केवली' नहीं हुआ। ___ कहा जाता है कि ईसा पूर्व 465 के बाद से कण्ठ-परम्परा का धीरे-धीरे ह्रास होने लगा। फिर भी किसी तरह आचार्य विष्णुनन्दि (ईसा पूर्व 465) से लेकर आचार्य लोहार्य या लोहाचार्य (ईस्वी सन् 38) तक आचार्य-परम्परा का क्रम चलता रहा।
बदलती परिस्थितियों में श्रुत-परम्परा का ह्रास होते देख चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में पाटलिपुत्र में जैन संघ का एक सम्मेलन बुलाया गया। चन्द्रगुप्त मौर्य के समय में लगभग ईसा पूर्व 363 से ईसा पूर्व 351 तक मगध में बारह साल का अकाल पड़ा था। इससे साधु-संघ बिखर गया। इस अकाल से बचने के लिए आचार्य भद्रबाहु 12000 जैन साधुओं के साथ दक्षिण भारत चले गये। जो जैन साधु दक्षिण भारत नहीं गये उन्होंने आचार्य स्थूलभद्र के नेतृत्व में अपनी परम्परा जारी रखी। भद्रबाहु की अनुपस्थिति में स्थूलभद्र ने पाटलिपुत्र में जैन-संघ का एक सम्मेलन बुलाया जिसमें जैन धर्मग्रन्थों का वाचन और संकलन किया गया। इस सम्मेलन में परम्परागत 12 अंगों में से 11 अंगों का ही संकलन हुआ। कहा जाता है कि बाद में स्थूलभद्र ने बारहवें अंग का भी संकलन कर लिया था जिसमें पहले से चले आ रहे 14 पूर्व भी सम्मिलित थे। पर जब आचार्य भद्रबाहु दक्षिण भारत से वापस आये तो उन्होंने अपनी अनुपस्थिति में आयोजित सम्मेलन में निश्चित किये गये अंगों को मान्यता नहीं दी।
यहाँ यह बतला देना अप्रासंगिक नहीं होगा कि भद्रबाहु अपने परम्परागत सिद्धान्त और आचार-नियमों में तनिक भी हेरफेर करना नहीं चाहते थे। वे नग्न रहने के नियम का पूरा-पूरा पालन करते थे। पर स्थूलभद्र ने इस नियम में ढील देकर साधु-संघ को लज्जा-निवारण के लिए श्वेत वस्त्र धारण करने की अनुमति दे दी। बाद में ऐसे ही कुछ आचार-व्यवहार की छोटी-छोटी बातों को. लेकर जैन धर्म दो भागों में बँट गया। श्वेत (सफेद) वस्त्र धारण करनेवालों को 'श्वेताम्बर' और दिक् अर्थात् सभी दिशाओं को ही वस्त्र मानकर नग्न रहनेवालों को 'दिगम्बर' कहा जाने लगा।