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अनुप्रेक्षा (भावना) 1. अनित्य भावना 2. अशरण भावना 3. संसार भावना 4. एकत्व भावना 5. अन्यत्व भावना 6. अशुचि भावना 7. आस्रव भावना 8. संवर भावना 9. निर्जरा भावना 10. लोक भावना 11. बोधि-दुर्लभ भावना और 12. धर्म भावना। अपनी साधना में दृढ़ होने के लिए इन्हें अच्छी तरह समझ लेना आवश्यक है। हम यहाँ एक-एक कर इन पर विचार करेंगे।
1. अनित्य भावना इस संसार और इसके पदार्थों को जिस रूप में हम अपने मन और इन्द्रियों द्वारा अनुभव करते हैं, वह उनका वास्तविक रूप नहीं है। जबतक हमें पारमार्थिक ज्ञान नहीं होता, तबतक हमारा सांसारिक ज्ञान हमें भ्रम में ही रखता है। धन-दौलत, मान-प्रतिष्ठा, सुन्दरता और दुनिया की चकमक आदि जिन विषयों को स्थायी समझकर हम उनके पीछे दौड़ते रहते हैं, वे स्थायी नहीं हैं। जिस शरीर को हम मोहक और आकर्षक समझकर उससे मिलने या लिपटने के लिए व्यग्र रहते हैं, वह केवल हाड़-मांस का एक पुतला है, जो चिता में जलकर भस्म हो जाता है। पर हमारे ऊपर अज्ञानजनित मोह का इतना मोटा परदा पड़ा हुआ है कि हम इस अनित्य और असार संसार को नित्य और सच्चा मानकर इसमें आसक्त हो जाते हैं। संसार की अनित्य और झूठी वस्तुओं के लोभ में पड़कर हम अनेक प्रकार के भले-बुरे कर्म करते हैं, जिनके फलस्वरूप हमें आवागमन के चक्र में पड़कर घोर दुःख भोगना पड़ता है। ऐसी स्थिति से बचने के लिए जैन ग्रन्थों में अनेक प्रकार से संसार की अनित्यता और असारता दिखलाकर उसका बार-बार चिन्तन करते रहने पर जोर दिया गया है। हम जिस प्रकार का चिन्तन बार-बार करते हैं, उसके अनुसार ही हमारी चित्तवृत्ति ढल जाती है। जब संसार की अनित्यता और असारता की भावना हमारे हृदय में घर कर लेती है, तब हम संसार से उदासीन या अनासक्त हो जाते हैं और दृढ़ विश्वास के साथ मोक्ष-मार्ग में सहज रूप से आगे बढ़ते जाते हैं।
संसार का अर्थ ही है संसरण या गमन करनेवाला। अर्थात् जो चलायमान है या जिसमें सदा परिवर्तन या बदलाव होता रहता है, उसे ही संसार कहते हैं। यहाँ एकमात्र परमात्मस्वरूप आत्मा ही नित्य है, जो वास्तव में संसार से परे और