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अनुप्रेक्षा (भावना)
सांसारिक वस्तुओं और व्यक्तियों की असलियत को न समझने के कारण जीव उनके मोह में पड़ जाता है और उनमें आसक्त हो जाता है। उसकी यह आसक्ति ही उसके बन्धन का मूल कारण है। जब तक जीव में संसार के प्रति अनासक्ति या वैराग्य की भावना उत्पन्न नहीं होती, तब तक संसार से उसका छुटकारा पाना सम्भव नहीं है। इसीलिए जैन धर्म में संसार की वास्तविकता को समझाकर उसका बार-बार स्मरण और चिन्तन करते रहने का उपदेश दिया गया है। इस प्रकार के स्मरण और चिन्तन से जीव में संसार के प्रति अनासक्ति
और वैराग्य की भावना विकसित होती है और समत्व-भाव उत्पन्न होता है। यह भावना मोक्ष-प्राप्ति के लिए अत्यन्त सहायक सिद्ध होती है। संसार और इसके पदार्थों की असलियत के बारे में बार-बार चिन्तन करने को ही जैन धर्म में 'अनुप्रेक्षा' (अनु बार-बार प्रेक्षा गौर से देखना या गहराई से विचार करना) या 'भावना' (बार-बार चिन्तन करना) कहा गया है। तत्त्वार्थाधिगम सूत्र में इसे इन शब्दों में व्यक्त किया गया है:
(तत्त्व का) पुनः-पुनः चिन्तन करना अनुप्रेक्षा (भावना) है।'
वैराग्य बढ़ानेवाली भावनाएँ। जैन ग्रन्थों में वैराग्य की वृद्धि के लिए बारह प्रकार की अनुप्रेक्षाओं का उल्लेख पाया जाता है। इन्हें बारह वैराग्य भावनाएँ भी कहते हैं। इनके नाम हैं:
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