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________________ दिव्यध्वनि 231 परम मिष्ट (मधुर) व गम्भीर ध्वनि हो रही है। भगवान् की दिव्य ध्वनि मेघ गर्जना के समान हो रही है। 38 महावीर स्वामी की पूजा में भी इस दिव्यध्वनि का संकेत करते हुए कहा गया है: घननं घननं घनघंट बजै। दृमदम दृमदम मिरदंग सजै।9 वास्तव में यह अनाहत नाद, जो प्रभु का प्रकट रूप है, सम्पूर्ण विश्व में व्याप्त है। आचार्य पार्श्वदेव ने संगीत-समयसार में स्पष्ट कहा है: नादात्मकं जगत। अर्थ–सम्पूर्ण जगत् नादात्मक है।40 भक्ति की तन्मयता और ध्यान की सिद्धि के लिए नाद की आश्यकता बतलाते हुए इस पुस्तक में कहा गया है: भक्ति के लिए तन्मयता और तन्मयता के लिए नाद-सौदर्य आवश्यक है। नाद-सौन्दर्य की भावना संगीत को जन्म देती है। वीणा की झंकार, वेणु की स्वर-माधुरी, मृदंग-मुरज-पर्णव-दर्दुर-पुष्कर-मंजीर आदि अनेक वाद्य प्राणों में एकीभाव उत्पन्न करते हैं। एकीभाव से ध्यान-सिद्धि होती है। मन-वचन-काय एकनिष्ठ होकर समाधि का अनुभव करते हैं। यह बताते हुए कि किस प्रकार ध्यान या समाधि की अवस्था में दिव्यध्वनि की अमृत-वृष्टि द्वारा साधकों के सांसारिक दुःख दूर हो जाते हैं, उन्हें परमसुख का अनुभव होता है और वे मुक्ति का महाफल प्राप्त कर लेते हैं, महाचन्द्र जैन कहते हैं: ( अमृत झर झुरि-झुरि आवे जिनवानी। दिव्य ध्वनि गम्भीर गरज है श्रवण सुनत सुखदानी॥ भव्य जीव मन-भूमि मनोहर पाप कूड़कर हानी।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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