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जैन धर्म: सार सन्देश
धर्म-बीज तहाँ ऊगत नीको मुक्ति-महाफल ठानी॥ ऐसो अमृत झर अति शीतल मिथ्या तपत बुझानी॥
"बुध महाचन्द्र" इसी झर भीतर मग्न सफल सोइ जानी।। अर्थ-भगवान् जिनेन्द्र की वाणी अमृतनिर्झर के साथ झर-झर बरस रही है। दिव्यध्वनि ही वह गम्भीर मेघगर्जन है जिसे सुनकर श्रोत्र सम्पुट (आन्तरिक कान) में सुख की प्रतीति हो रही है। भव्यात्माओं (मोक्ष-प्राप्ति की साधना में लगे जीवों) की हृदय-भूमि का पापमय अवकर (कूड़ा) इससे बह गया है, नष्ट हो गया है। इस जिनेन्द्र-भारती (वाणी) रूप अमृत नीर के सिंचन से श्रेष्ठ धर्मबीज अंकुरित होता है जिसके वृक्ष पर मुक्तिरूप महान् फल फलित होता है। इस प्रकार के अत्यन्त शीतल अमृतनिर्झर से मिथ्यात्वरूप दाह की शान्ति होती है। "महाचन्द्र" का अभिमत है कि इसी अमृत-निर्झर में जो मग्न रहते हैं, अवगाहन करते हैं, वे ही अपना जन्म सफल करते हैं। 42
दिव्यध्वनि के स्वरूप और प्रभाव पर विचार करने से यह स्पष्ट हो जाता है कि मन को वश में करने, संसार-सागर को पार करने और आत्मतत्त्व के स्वरूप का अनुभव प्राप्त कर अपने जीवन को सफल बनाने के लिए किसी तीर्थंकर या सच्चे गुरु की खोज कर उनसे दिव्यध्वनि का रहस्य प्राप्त करना अत्यन्त आवश्यक है। इसलिए हमें पूरी तैयारी और दृढ़ संकल्प के साथ अपने मनुष्य-जीवन के इस मूल उद्देश्य को पूरा करने के प्रयत्न में लग जाना चाहिए। श्री कानजी स्वामी ने बड़े ही स्पष्ट शब्दों में हमें जीवन के इस उद्देश्य की पूर्ति के प्रयत्न में पूरी तैयारी के साथ लग जाने का उपदेश दिया है। वे कहते हैं:
सच्चे देव, गुरु, शास्त्र के निमित्त के बिना कदापि सत्य नहीं समझा जा सकता, ...ऐसा नियम अवश्य है कि जहाँ अपनी तैयारी होती है वहाँ निमित्त का सुयोग अवश्य होता ही है। ...महाविदेह में तीर्थंकर न हों यह कदापि नहीं हो सकता। यदि अपनी तैयारी हो तो चाहे जहाँ, सत् निमित्त का योग मिल ही जाता है और यदि अपनी तैयारी न हो तो सत् निमित्त का योग मिलने पर भी सत् का लाभ नहीं होता। 43