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________________ 230 जैन धर्म: सार सन्देश तिर्यञ्च (पशु-पक्षी), मनुष्य और देवों का दृष्टिमोह नष्ट कर दिया, अर्थात् उनका मोहभरा दृष्टिकोण नष्ट हो गया और उनकी प्रवृत्ति ज्ञान की ओर हो गयी। __इससे यह सूचित होता है कि उच्च कोटि के महात्माओं के प्रभाव से उनके समक्ष पशु-पक्षियों के स्वभाव में भी अन्तर आ जाता है और वे उन महात्माओं के प्रति अनुकूल व्यवहार करने लगते हैं। कहा जाता है कि जब देवदत्त ने बुद्ध को मतवाले हाथी के पैरों तले कुचलवाने की कुचेष्टा की तो वह हाथी बुद्ध के पास आकर उनके सामने सिर झुकाकर शान्त भाव से खड़ा हो गया। इस बात को प्रायः सभी जानते हैं कि वन में निवास करनेवाले ऋषि-मुनियों को बाघ, सिंह आदि खूखार जंगली जानवर कभी नहीं छेड़ते और ऋषि-मुनियों को भी उनसे कभी कोई भय नहीं होता। उच्च कोटि के महात्माओं या सन्तों की सौम्य आकृति, स्वाभाविक सरलता, आहिंसामय जीवन और शान्त भाव को देख जंगली जन्तुओं का विरोध-भाव मिट जाता है और सन्त-महात्माओं के समीप का सम्पूर्ण वातावरण सहज ही शान्तिमय हो जाता है। योगसूत्र में भी कहा गया है: अहिंसाप्रतिष्ठायां तत्संनिधौ वैरत्यागः।” अर्थात् जब साधक में अहिंसा का गुण भली-भाँति स्थापित हो जाता है तब उसके सामने सभी प्राणी सहज ही वैरभाव का त्याग कर देते हैं। दूसरे शब्दों में, जब अहिंसा की भावना साधक के अन्दर दृढ़ हो जाती है तो उस अहिंसा भावना का तदनुकूल प्रभाव पास आनेवालों के ऊपर अवश्य पड़ता है। ऐसी स्थिति में अनन्त ज्ञान और अनन्त आनन्द को प्राप्त कर अपने अन्दर दिव्यध्वनि को प्रकट कर लेनेवाले तीर्थंकर के सामने आये पशु-पक्षियों का उनके प्रभाव में आना बिल्कुल ही स्वाभाविक है। तत्त्वभावना में अरहंत भगवान् के दिव्य स्वरूप तथा उनकी मेघ गर्जना के समान दिव्यध्वनि का उल्लेख इन शब्दों में किया गया है: परम रमणीक अशोक वृक्ष (जहाँ शोक या दुःख नही होता) शोभायमान है। उसके नीचे प्रभु का सिंहासन है। दुंदुभि बाजों (दिव्य नगाड़ों) की
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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