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दिव्यध्वनि
229 उपनिषदों में भी दिव्यध्वनि या अनाहत नाद को मन को वश में करने का अचूक साधन माना गया है। उदाहरण के लिए, नादबिन्दूपनिषद् में मन को वश में करने के लिए इसे अनाहत नाद में लीन करने का उपदेश देते हुए कहा गया है :
यह मनरूपी आन्तरिक सर्प अनाहत नाद को ग्रहण करने पर उस सुहावने नाद की गन्ध से बँधकर तत्काल सारी चपलताओं का परित्याग कर देता है। फिर संसार को भूलकर यह एकाग्र हो जाता है और इधर-उधर कहीं नहीं दौड़ता। विषयों के वन में विचरनेवाले मनरूपी मतवाले हाथी को वशीभूत करने में यह नादरूपी तीक्ष्ण अंकुश ही समर्थ होता है। यह नाद मनरूपी मृग को बाँधने में जाल का काम करता है। यह मनरूपी तरंग को रोकने में तट का काम करता है। इसी उपनिषद् में फिर आगे कहा गया है : जब निरन्तर नाद का अभ्यास करने से वासनाएँ पूरी तरह क्षीण हो जाती हैं, तब मन और प्राण निःसन्देह रूप से निराकार ब्रह्म में विलीन हो जाते हैं। कोटि-कोटि नाद और कोटि-कोटि बिन्दु ब्रह्मप्रणवनाद में लीन हो जाते हैं।
इस सम्बन्ध में नादबिन्दूपनिषद् और अमृतनादोपनिषद् के कुछ उद्धरण पहले भी इस अध्याय में दिये जा चुके हैं।
दिव्यध्वनि एक उँचे और गूढ अनुभव की अवस्था में प्रकट होती है जहाँ मन, बुद्धि और वचन का प्रवेश नहीं होता। इसीलिए इसे न मन-बुद्धि द्वारा यथार्थ रूप से समझा जा सकता है और न इसे वर्णात्मक भाषा के वचनों द्वारा व्यक्त ही किया जा सकता है। पर परमार्थी साधकों को इसके गहरे शान्त और गम्भीर प्रभाव का अनुभव बड़े ही स्पष्ट और असन्दिग्ध रूप से होता है।
दिव्यध्वनि का प्रभाव इतना गहरा और व्यापक होता है कि पशु-पक्षी भी अपने-अपने स्तर पर इससे प्रभावित हुए बिना नहीं रहते। हरिवंश पुराण में कहा गया है कि ओठों को बिना हिलाये ही निकली हुई तीर्थंकर की दिव्यध्वनि ने