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जैन धर्म : सार सन्देश
इसी प्रकार अलंकार-चिन्तामणि में दिव्यध्वनि को " असीम सुखप्रद बतलाया गया है।
आचार्य जिनसेन ने भी आदिपुराण में कहा है:
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हे भगवन्, जिसमें संसार के समस्त पदार्थ भरे हुए हैं, जो समस्त भाषाओं का निर्देशन करती है, अर्थात् जो अपनी अतिशय अलौकिक विशेषता के कारण समस्त भाषाओं के रूप में परिणमन करती है और जो स्याद्वादरूपी अमृत से युक्त होने के कारण समस्त प्राणियों के हृदय के अन्धकार को नष्ट करती है - ऐसी आपकी यह दिव्यध्वनि ज्ञानीजनों को शीघ्र ही तत्त्वों का अनुभव करा देती है । 31
इन सब कथनों से स्पष्ट हो जाता है कि जैन धर्म के अनुसार अमृत के समान मधुर और मनोहर ( मन को हरने या वश में करनेवाली) दिव्यध्वनि में ही वह अनुपम आनन्द का रस है जो मन को पूरी तरह तृप्त कर देता है । दिव्यध्वनि की प्राप्ति होने पर मन अपनी चंचलता छोड़कर स्थिर और एकाग्र हो जाता है। दिव्यध्वनि हृदय को दिव्यता प्रदान करती है, अपने पवित्र प्रभाव से अन्तरात्मा के समस्त कलुष को धोकर उसे निर्मल बनाती है और उसे परमात्मा का रूप दे देती है । इसलिए दिव्यध्वनि को संसार - सागर को पार करने का मार्ग कहा जाता है। आचार्य जिनसेन ने स्पष्ट कहा है:
हे भगवन्, आपकी यह दिव्यध्वनि या दिव्यवाणीरूपी पवित्र जल हम लोगों के मन के समस्त मल को धो रहा है। वास्तव में यही तीर्थ है और यही आपके द्वारा बताया हुआ धर्मरूपी तीर्थ, भव्यजनों का संसाररूपी समुद्र से पार होने का मार्ग है। 32
श्री कानजी स्वामी भी कहते हैं:
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सच्चे देव, निर्ग्रथ (ग्रन्थिरहित या बन्धनमुक्त) गुरु और त्रिलोकीनाथ परमात्मा के मुख से निकली हुई ध्वनि (दिव्यध्वनि) अर्थात् आगमसार इन तीन निमित्तों के बिना मुक्ति नहीं होती । 33