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________________ दिव्यध्वनि 227 __ इसीलिए रणजीत सिंह कूमट मन की शान्ति को बढ़ाने और आत्मा की अनुभूति का आनन्द प्राप्त करने के लिए दिव्यध्वनि या अन्तर की आवाज़ या शब्द को सुनने की प्रेरणा देते हैं। वे कहते हैं: दिमाग में (अन्तर में) हो रही आवाज़ को सुनो और उसके द्रष्टा बन जाओ। इस पर कोई निर्णय मत लो, न इसे रोको या इससे लड़ाई लड़ो। शीघ्र ही अनुभव होगा कि शब्द को "मैं" सुन रहा हूँ। यह "मैं" (आत्मा) की अनुभूति तुम्हारी अपनी उपस्थिति की अनुभूति है और यह बौद्धिक बात नहीं है बल्कि बद्धि से परे की चीज़ है। ...जब हम विचारों के द्रष्टा बनेंगे तो देखेंगे कि यह शान्त मन की स्थिति जो पहले कुछ क्षणों की थी वह बढ़ने लगी है और धीरे-धीरे गहरी भी होने लगी है। यहीं "स्व" (आत्मा) के साथ एकता की अनुभूति होने लगेगी। यहीं से एक अन्तर की ख़ुशी अनुभूत होगी-स्व (आत्मा) से साक्षात्कार की128 जैन ग्रन्थों में बार-बार दिव्यध्वनि की विशेषताओं को बताते हुए उसकी अनुपम मधुरता, अलौकिक मनोहरता (मन को हरनेवाली या वश में करनेवाली शक्ति) तथा मन के मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करने और परमतत्त्व को प्रकाशित करने के सामर्थ्य का उल्लेख किया गया है। • दिव्यध्वनि के स्वरूप पर विचार करते हुए इसके पूर्व के शीर्षक में हम देख चुके हैं कि यह दिव्यध्वनि "भव्य जनों को आनन्द देनेवाली" (तिलोयपण्णत्ती 1/162, 4/902, हरिवंश पुराण 2/113) है, "मन में स्थित मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित"( महापुराण 23/69) है तथा "लोगों का अज्ञान दूर कर उन्हें तत्त्व का बोध करा रही है।"(आदिपुराण 23/70) ऐसे ही विचार को व्यक्त करते हुए धवला टीका में आचार्य वीरसेन कहते हैं: तीर्थंकर की दिव्यध्वनि मधुर, मनोहर, गम्भीर और विशद भाषा के अतिशयों से युक्त होती है।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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