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जैन धर्म: सार सन्देश गणधर के प्रश्न के अनन्तर दिव्यध्वनि खिरने लगी। भगवान की दिव्यध्वनि चारों दिशाओं में दिखनेवाले चार मुखकमलों से निकलती थी। यह चार पुरुषार्थरूप चार फल को देनेवाली थी। इसप्रकार यह सार्थक थी।
तीर्थंकर आदिनाथ ने अपने परोपकारी स्वभाव के कारण दया कर दिव्यध्वनिरूपी अमृत की धारा पिलाकर ही जीवों का उद्धार किया था, जैसा कि आदिपुराण में कहा गया है:
वे जगदगुरु भगवान् (आदिनाथ) स्वयं कृतकृत्य होकर (अपने उद्धार का कार्य पूरा कर चुके होने पर) भी धर्मोपदेश के द्वारा दसरों की भलाई के लिए उद्योग करते थे। इससे निश्चय होता है कि महापुरुषों की चेष्टाएँ स्वभाव से ही परोपकार के लिए होती हैं। उनके मुखकमल से प्रकट हुई दिव्यध्वनि या दिव्यवाणी ने उस विशाल सभा को अमृत की धारा के समान सन्तुष्ट किया था, क्योंकि अमृतधारा के समान ही उनकी दिव्यवाणी भव्य जीवों का सन्ताप दूर करनेवाली थी, जन्म-मरण के दुःख से छुड़ानेवाली थी।
परमार्थ की प्राप्ति में सबसे बड़ा बाधक हमारा मन है। जब तक मन की चंचलता दर नहीं होती और यह एकाग्र नहीं होता तब तक न ध्यान लग पाता है, न आन्तरिक शुद्धि होती है और न आत्मा के स्वरुप की पहचान ही की जा सकती है। मन को शान्त करना या इसे वश में लाना अत्यन्त कठिन कार्य है, क्योंकि मन स्वाद का आशिक है और संसार के लुभावने विषयों का स्वाद लेने के लिए यह दिन-रात उनके पीछे दौड़ लगाये रखता है। जब तक इसे सांसारिक विषयों से अधिक ऊँचा और मीठा स्वाद नहीं मिल जाता तब तक इसे संसार में भटकते रहने से रोका नहीं जा सकता। दिव्यध्वनि में ही वह अत्यन्त मधुर अमृत का स्वाद है जिसे पाकर मन तृप्त होता है। यह उसमें इस प्रकार मग्न हो जाता है कि इसे अन्य किसी विषय की चाह रह ही नहीं जाती। यह दिव्यध्वनि के मधुर रस में पूरी तरह लीन हो जाता है। मन को इसप्रकार शान्त और स्थिर कर लेने पर साधक सहज ही ध्यान की गूढ अवस्था को प्राप्त कर अपने लक्ष्य की प्राप्ति कर लेता है।