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दिव्यध्वनि से आवृत (ढकी हुई) दीख पड़ती है। इसी कारण आत्मा से निकलनेवाली दिव्यध्वनि शरीर के सर्वांग से निकलती हुई सी प्रतीत होती है। इसलिए इस शीर्षक के प्रारम्भ में यह कहा गया है कि केवलज्ञान प्राप्त कर लेने के बाद भगवान् महावीर के सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ऊँकार ध्वनि गूंज उठी।'
इसमें सन्देह नहीं कि ज्ञान की पूर्णता को प्राप्त कर चुके तीर्थंकरों के गहरे अनुभव को किसी भी भाषा के वर्णात्मक शब्दों में ठीक-ठीक व्यक्त नहीं किया जा सकता। उनका अनुभव मन बुद्धि और वचन से परे होता है। इसलिए उनसे सहज भाव से प्रकट होनेवाली दिव्यध्वनि वर्णात्मक या अक्षरात्मक नहीं हो सकती। वह निरक्षरी ही हो सकती है।
इस निरक्षरी दिव्यध्वनि का मर्म बिखरे और चंचल मन-बुद्धिवाले मनुष्यों के लिए समझ पाना सम्भव नहीं है। इसलिए गणधरों या सुयोग्य पात्रों के अभाव में यह दिव्यध्वनि नहीं खिरती। कहा जाता है कि केवल ज्ञान की उत्पत्ति हो जाने पर भी 66 दिनों तक गणधर का अभाव होने के कारण भगवान् महावीर की दिव्यध्वनि प्रकट नहीं हुई।" जयधवला में स्पष्ट कहा गया है कि "गणधर का अभाव होने से... दिव्यध्वनि की प्रवृत्ति नहीं होती है।"12 यह दिव्यध्वनि गणधर के संशय को दूर करने के लिए होती है। जीव जब तीर्थंकर भगवान के चरणों में शरण लेकर उनसे दीक्षा प्राप्त करता है और उनके बताये उपदेश के अनुसार अभ्यास में लगता है, तभी वह इस दिव्यध्वनि को सुन सकता है। कसायपाहुड में यह प्रश्न उठाया गया है: "जिसने जिन पाद-मूल में महाव्रत स्वीकार किया है (दीक्षा ली है), ऐसे पुरुष को छोड़कर अन्य के निमित्त से दिव्यध्वनि क्यों नहीं खिरती?" इसके उत्तर में कहा गया है: "ऐसा ही स्वभाव है।" 13
जैन ग्रन्थों के ये कथन उस अटल आध्यात्मिक नियम की ओर संकेत करते हैं जिसके अनुसार किसी तीर्थंकर, पूर्णज्ञानी मार्गदर्शक या सतगुरु की शरण में आकर, उनसे दीक्षा लिए बिना कोई भी व्यक्ति अपने अन्दर दिव्यध्वनि का अनुभव प्राप्त नहीं कर सकता। कोई तीर्थंकर या सच्चा गुरु ही अपने शिष्यों को अपनी दिव्यध्वनि की अनुभूति का अनुभव प्रदान कर सकता है। तीर्थंकर या सतगुरु ही अपने शिष्यों की आत्मा को अपनी आन्तरिक ध्वनि से जोड़ते