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जैन धर्म : सार सन्देश
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भी दिव्यध्वनि को तालु दन्त, ओष्ठ तथा कण्ठ के हलन चलन रूप व्यापार से रहित होकर एक ही समय में भव्यजनों को आनन्द देनेवाली बताया गया है। '
मुख से बोले जानेवाले किसी भी भाषा के वर्णात्मक शब्दों या वचनों को हम अपनी इच्छा से प्रयत्नपूर्वक बोलते हैं। पर दिव्यध्वनि सभी इच्छाओं से परे तीर्थंकरों के अन्दर से बिना किसी प्रयत्न के अनायास ही जीवों के कल्याण के लिए सहजभाव से प्रकट होती है। महापुराण और नियमसार तात्पर्यवृत्ति में यह स्पष्ट रूप से कहा गया है कि " भगवान् (महावीर) की वह वाणी बोलने की इच्छा के बिना ही प्रकट हो रही थी । "7 स्वयम्भू स्तोत्र' और समाधिशतक' में बताया गया है कि अरहन्त भगवान् की यह क्रिया स्वाभाविक ही बिना प्रयत्न होती है ।
जैन धर्म में दिव्यध्वनि के स्वरूप के सम्बन्ध में ऊपर जो बातें बतायी गयी हैं, वैसी ही बातें अमृतनादोपनिषद् में भी प्रणव या ऊँकार ध्वनि के विषय में कही गयी हैं। प्रणव या ऊँकार की दिव्यध्वनि के सम्बन्ध में अमृतनादोपनिषद् की यह उक्ति है:
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यह प्रणव-नामक नाद बाह्य प्रयत्न से उच्चारित होनेवाला नहीं है । यह व्यंजन नहीं है। स्वर भी नहीं है। कण्ठ, तालु, ओष्ठ और नासिका से उच्चारित होनेवाला भी नहीं है। यह मूर्द्धा से उच्चारित होनेवाला भी नहीं है। दोनों ओष्ठों के भीतर स्थित दन्त स्थान से भी इसका उच्चारण नहीं हो सकता। यह वह दिव्य अक्षर है, जो कभी क्षरित (नष्ट) नहीं होता अर्थात् यह अव्यक्त नाद के रूप में सदा विद्यमान रहता है। इसलिए ( मन को स्थिर करने के लिए) संयम के साथ प्रणव का अभ्यास करना चाहिए और मन को निरन्तर नाद में लीन किये रहना चाहिए।
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जब मन आन्तरिक नाद या दिव्यध्वनि के आनन्द में लीन हो जाता है, तब वह पूरी तरह स्थिर या शान्त हो जाता है। तब आत्मा क्रमशः स्थूल, सूक्ष्म और कारण- तीनों शरीरों से निर्लिप्त होकर निर्मल बन जाती है । इस निर्मल और निर्लिप्त आत्मा के अन्दर से ही दिव्यध्वनि खिरती (प्रस्फुटित होती ) है । पर सांसारिक जीवन में तीनों शरीरों से निर्लिप्त होने पर भी यह आत्मा इन शरीरों