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________________ दिव्यध्वनि 217 साधारणतयाः जब हम किसी भी भाषा में कोई वर्णात्मक शब्द या वचन बोलते या उसे सुनते हैं तो वह मुँह द्वारा बोला जाता है और कानों द्वारा सुना जाता है। पर दिव्यवाणी या ध्वनि न मुँह द्वारा बोली जा सकती है और न बाहरी कानों द्वारा सुनी जा सकती है। यह वाणी या ध्वनि मुँह खोले बिना अपने-आप अन्दर में गूंजती है। पर साधारणतया मुँह से बोलने और कानों से सुनने की अपनी पुरानी आदत के कारण शुरू-शुरू में ऐसा लगता है कि यह दिव्यध्वनि मुख से बोली जा रही है और बाहरी कानों से सुनी जा रही है। पर यह तो आन्तरिक वाणी है जो आन्तरिक कमलरूपी मुख से निकलती है। इसके स्वरूप का संकेत देते हुए जैन धर्म के महापुराण में कहा गया है: भगवान् (महावीर) के मुखरूप कमल से बादलों की गर्जना का अनुकरण करनेवाली अतिशय युक्त महादिव्यध्वनि निकल रही थी और वह भव्य (मोक्षार्थी) जीवों के मन में स्थित मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करती हुई सूर्य के समान सुशोभित हो रही थी। वह दिव्य ध्वनि भगवान् के मुख से इस प्रकार निकल रही थी जिस प्रकार पर्वत की गुफा के अग्रभाग से प्रतिध्वनि निकल रही हो। महापुराण के इन कथनों से यह स्पष्ट है कि बादलों की गर्जना के समान प्रतिध्वनित होनेवाली और सूर्य के समान मोहरूपी अन्धकार को नष्ट करनेवाली दिव्यध्वनि में आवाज़ और प्रकाश दोनों ही पाये जाते हैं। नादबिन्दूपनिषद् में भी प्रणव का स्वरूप बताते हुए उसे नाद और ज्योति (प्रकाश) से युक्त कहा गया है। इस नाद (आन्तरिक आवाज़) और प्रकाश के आनन्द में मग्न होकर मन आनन्दमय शब्दब्रह्म में विलीन हो जाता है, जैसा कि नादबिन्दूपनिषद् का स्पष्ट कथन है: "ब्रह्मस्वरूप प्रणव में संलग्न नाद ज्योति स्वरूप होता है। उसमें मन लय को प्राप्त होता है।' दिव्यध्वनि द्वारा निकलनेवाली आवाज़ आन्तरिक आवाज़ है जो बाहरी या भौतिक मुख से प्रकट नहीं की जा सकती। प्रसिद्ध जैन ग्रन्थ कसायपाहुड में स्पष्ट कहा गया है: “जिस समय दिव्यध्वनि खिरती (प्रकट होती) है उस समय भगवान् का मुख बन्द रहता है।" तिलोयपण्णत्ती और हरिवंश पुराण में
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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