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दिव्यध्वनि
तीर्थंकरों या केवलज्ञानियों से प्रकट होनेवाली अलौकिक वाणी को दिव्यध्वनि कहते हैं। यह दिव्यध्वनि या अलौकिक नाद ही जैन धर्म का मूल स्रोत है। जैन परम्परा के अनुसार इसी के आधार पर गणधरों और आचार्यों ने जैन धर्म के मूल ग्रन्थों की रचना की।
दिव्यध्वनि का स्वरूप कहा जाता है कि जब वर्द्धमान महावीर को अपनी साधना में सफलता प्राप्त हो गयी और उनके सभी आन्तरिक विकार पूर्णत: नष्ट हो गये, तब उनकी निर्मल आत्मा अनन्त ज्ञान अर्थात् सर्वज्ञता या केवलज्ञान के प्रकाश से जगमगा उठी। वे सर्वज्ञ, सर्वदर्शी और अनन्त ज्ञान-भण्डार के स्वामी बन गये। उनके सर्वांग से एक विचित्र गर्जना रूप ऊँकार ध्वनि गूंज उठी। इस विचित्र या अलौकिक ध्वनि को ही दिव्यध्वनि कहते हैं। इसी के आधार पर उनके प्रमुख शिष्य गौतम गणधर ने जैन धर्म के मूल द्वादशांग ग्रन्थों की रचना की और फिर बाद में अन्य आचार्यों द्वारा इन पर आधारित अन्य ग्रन्थ बनाये गये। __ प्रसिद्ध जैन विद्वान् देवेन्द्र कुमार शास्त्री नीमच ने तीर्थंकरों की इस दिव्यध्वनि को 'शब्द ब्रह्म' की संज्ञा दी है।' अपनी साधना द्वारा स्थूल, सूक्ष्म
और कारण जगत् को पार करने पर ही आत्मा स्थूल, सूक्ष्म और कारण शरीर के बन्धनों से मुक्त होकर अपने निर्मल स्वरूप को धारण करती है। तभी यह समस्त ज्ञान के भण्डार को प्राप्त कर केवलज्ञानी बनती है।
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