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________________ 215 निष्कर्ष रूप में जैन धर्म का यही उपदेश है कि अपना कल्याण चाहनेवाले मनुष्य को सुगुरु, अर्थात् सच्चे गुरु की सेवा-भक्ति द्वारा संसार-सागर को पार करने का प्रयत्न करना चाहिए और संसार में भटकानेवाले कुगुरु की सेवा से दूर रहना चाहिए। सुगुरु और कुगुरु-सम्बन्धी इसी मूल उपदेश को मूलशंकर देशाई इन शब्दों में व्यक्त करते हैं: । सुगुरु जो सेवन करे, होवे भव से पार। कुगुरुन के सेवन करे, बढ़े संसार अपार ॥/ अनादि काल से अपनी आत्मा ने कुगुरु की सेवा करने में अनन्त काल निकाला तो भी कल्याण हुआ नहीं। जो जीव अपना कल्याण करना चाहता है उसको प्रथम सुगुरु को पहचान कर उनके चरणों में भक्ति करनी चाहिए।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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