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जैन धर्म : सार सन्देश
को वे नहीं रुकते; दुनिया से डरकर असत् देव-गुरु-धर्म का सेवन वे कभी नहीं करते; प्राण चले जायें तो भी सच्चे देव - गुरु- धर्म से विपरीत किसी को वे नहीं मानते । उनको अपने अन्तर में वीतरागता ही इष्ट है 1 82
इसीलिए जैन धर्म में जहाँ एक ओर हमारे मनुष्य - जीवन को सँवारने और सफल बनानेवाले सच्चे गुरु की सेवा और भक्ति करने का उपदेश दिया गया है, वहाँ दूसरी ओर हमारे मनुष्य-जीवन को कुमार्ग में लगाने और उसे निष्फल बनानेवाले कुगुरु से सदा बचे रहने के लिए चिताया गया है। कुगुरु या खोटे गुरु को नमस्कार करना भी हितकर नहीं है । रत्नकरण्ड श्रावकाचार में स्पष्ट शब्दों में कहा गया है:
सम्यग्दृष्टि से सम्पन्न जीव भय, आशा, स्नेह अथवा लोभ से भी कभी खोटे देव, खोटे शास्त्र अथवा खोटे गुरु को नमन नहीं करें। कभी उनका विनय भी न करें । 83
कुन्थुसागर जी महाराज भी राग-द्वेष से युक्त कुगुरुओं को त्यागने और राग-द्वेषरहित, बन्धन मुक्त कृपासागर सद्गुरु को धारण कर मोक्ष की प्राप्ति करने तथा अपने मनुष्य- जीवनको सफल बनाने का उपदेश देते हैं । जीव को चिताते हुए वे कहते हैं:
आत्मन् ! यदि तूने गुरु समझकर रागी -द्वेषी कुगुरुओं की स्तुति की हो, उनकी प्रशंसा की हो, किसी लोभ के कारण उनको नमस्कार किया हो अथवा कुनीत प्रदर्शक कुशास्त्र की स्तुति की हो, प्रशंसा की हो वा किसी लोभ से उसको नमस्कार किया हो तो तू अपने आत्मा को शुद्ध करने के लिए उन कार्यों का त्याग कर तथा पवित्र मन से जिनेंद्रदेव (जितेन्द्रिय गुरुदेव) के कहे हुए शास्त्रों का पठन-पाठन कर और कृपा के सागर निर्ग्रन्थ (बन्धनमुक्त ) गुरु को मान । सदा यथार्थ देव, शास्त्र, गुरु का आराधन कर जिससे कि मनुष्य - जन्म प्राप्त होकर तुझे शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो । 84