SearchBrowseAboutContactDonate
Page Preview
Page 214
Loading...
Download File
Download File
Page Text
________________ 213 सर्प को देखकर कोई भागे, उसे तो लोग कुछ भी नहीं कहते। हाय हाय! देखो तो, जो कुगुरु सर्प को छोड़ते हैं उसे मूढलोग दुष्ट कहते. हैं, बुरा बोलते हैं। अहो, सर्प द्वारा तो एक बार मरण होता है और कुगुरु अनन्त मरण देता है-अनन्त बार जन्म-मरण कराता है। इसलिए हे भद्र! सर्प का ग्रहण तो भला और कुगुरु का सेवन भला नहीं है। 1 सच्चे गुरु अपने शिष्यों को मोक्ष पद की प्राप्ति करानेवाले धर्म का अभ्यास कराते हैं और कुमार्ग में ले जानेवाले अधर्म से दूर रखते हैं। पर मोक्ष मार्ग से विमुख करनेवाले कुगुरु अपने शिष्यों को कुमार्ग में डालकर अनेक जन्मों तक दुःखी बनाये रखते हैं। इसलिए मोक्षार्थी को लोक-लाज और कुल-परम्परा की परवाह न कर निर्भीकता के साथ अधर्म की ओर ले जानेवाले किसी भी प्रकार के कुगुरु को त्याग देना चाहिए और उस सच्चे गुरु को धारण करना चाहिए जो दिव्यध्वनि द्वारा मोक्षमार्ग को दिखाते हैं। इसे स्पष्ट करते हुए कानजी स्वामी कहते हैं: वे कुगुरु हैं; मिथ्यात्व के कारण वे स्वयं तो पत्थर की नाव की तरह संसार-समुद्र में डूबते हैं; और अन्य जो जीव वीतरागी गुरुओं का स्वरूप न पहचानकर ऐसे कुगुरूओं को सच्चा समझकर उनका सेवन करते हैं वे भी संसार समुद्र में डूबते हैं। प्रश्न:- कोई कुगुरु मिल जाये तो क्या करना? उत्तर:- तो ऐसा जानना कि यह सच्चा गुरु नहीं है; वह स्वयं भी मिथ्याभाव से दुःखी है और उसका सेवन करनेवाला जीव भी मिथ्याभाव की पुष्टि से दुःखी है,-ऐसा समझकर हमें उसका सेवन छोड़ना। इसमें किसी का अपमान करने की या द्वेष करने की बात नहीं है, परन्तु अपने आत्मा को मिथ्यात्वादि दोषों से बचाने की बात है। धरम में शरम नहीं होती, अर्थात् शरम से या लोकलाज से भी कुगुरुओं का सेवन धर्मी जीव नहीं करते। अपना हित चाहनेवाले मुमुक्षु जीव को दुनिया की स्पृहा नहीं होती. दुनिया क्या बोलेगी-यह देखने
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
Copyright © Jain Education International. All rights reserved. | Privacy Policy