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जैन धर्म : सार सन्देश
कोई अंग धारण करके बड़े धर्मात्मा कहलाते हैं, बड़े धर्मात्मा योग्य क्रिया कराते हैं - इस प्रकार धर्म का आश्रय करके अपने को बड़ा मनवाते हैं, वे सब कुगुरु जानना ।
वहाँ कितने ही तो कुल द्वारा अपने को गुरु मानते हैं । उनमें कुछ ब्राह्मणादिक तो कहते हैं - हमारा कुल ही ऊँचा है, इसलिऐ हम सबके गुरु हैं। परन्तु कुल की उच्चता तो धर्म साधन से है । यदि उच्च कुल में उत्पन्न होकर हीन आचरण करे तो उसे उच्च कैसे मानें ? यदि कुल में उत्पन्न होने से ही उच्चपना रहे, तो मांसभक्षणादि करने पर भी उसे उच्च ही मानो; सो वह बनता नहीं है ।
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तथा कोई कहते हैं कि - हमारे कुल में बड़े भक्त हुए हैं, सिद्ध हुए हैं, धर्मात्मा हुए हैं; हम उनकी सन्तति में हैं, इसलिए हम गुरु हैं परन्तु उन बड़ों के बड़े तो ऐसे उत्तम थे नहीं; यदि उनकी सन्तति में उत्तमकार्य करने से उत्तम मानते हो तो उत्तम पुरुष की सन्तति में जो उत्तम कार्य न करे, उसे उत्तम किसलिए मानते हो ? ... इसलिए बड़ों की अपेक्षा महन्त मानना योग्य नहीं है । इस प्रकार कुल द्वारा गुरुपना मानना मिथ्याभाव जानना ।
... कितने ही किसी प्रकार का भेष धारण करने से गुरुपना मानते हैं; परन्तु भेष धारण करने से कौन सा धर्म हुआ कि जिससे धर्मात्मा-गुरु मानें? वहाँ कोई टोपी लगाते हैं, कोई गुदड़ी रखते हैं, कोई चोला पहिनते हैं, कोई चादर ओढ़ते हैं, कोई लाल वस्त्र रखते हैं, कोई श्वेत वस्त्र रखते हैं, कोई भगवा रखते हैं, कोई टाट पहिनते हैं, कोई मृगछाला रखते हैं, कोई राख लगाते हैं - इत्यादि अनेक स्वांग बनाते हैं। ऐसे स्वांग बनाने में धर्म का कौन सा अंग हुआ ? गृहस्थों को ठगने के अर्थ ऐसे भेष जानना । यदि गृहस्थ जैसा अपना स्वांग रखे तो गृहस्थ ठगे कैसे जायेंगे ? और इन्हें उनके द्वारा आजीविका व धनादिक व मानादिक का प्रयोजन साधना है; इसलिए ऐसे स्वांग बनाते हैं। भोला जगत उस स्वांग को देखकर ठगाता है और धर्म हुआ मानता है; परन्तु यह भ्रम है।