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____ आचार्य कुन्थुसागर जी महाराज भी हमें बड़े ही स्पष्ट शब्दों में चिताते हैं कि अनेकानेक योनियों में भटकानेवाले कुगुरु से हमें बचना चाहिए और मोक्ष की प्राप्ति करानेवाले सद्गुरु (सच्चे गुरु) की सेवा में लगना चाहिए। वे कहते है:
हे आत्मन् ! कुगुरुओं की सेवा करने से ही तूने आज तक सदाकाल अत्यन्त क्लेश और भ्रांति उत्पन्न करनेवाले निगोद (अत्यन्त अविकसित सूक्ष्मतम योनि) में परिभ्रमण किया है, महादुःख देनेवाले प्रतिक्षण प्राणों को हरण करनेवाले अत्यन्त निन्दनीय नरक में परिभ्रमण किया है
और अत्यन्त निकृष्ट योनि कहलानेवाली तिर्यंचगति में परिभ्रमण किया है। हे शिष्य! इस प्रकार तूने वीतराग निर्ग्रन्थ गुरु की सेवा न करने से तथा कुगुरु की सेवा करने से अनन्तकाल तक संसाररूपी महासागर में परिभ्रमण किया। अतएव अब तू कुगुरुओं की सेवा करने का सर्वथा त्याग कर दे। कृपा के सागर समस्त जीवों पर दया धारण करनेवाले वीतराग निर्ग्रन्थ गुरुओं की सेवा करने से मोक्षरूपी स्वराज्य (अपना अर्थात् आत्मा का राज्य) तेरे अधीन हो जायेगा। कुगुरु पत्थर की नाव के समान होते हैं, आप भी डूबते हैं और अपने सेवक को भी ले डूबते हैं। इसलिए ऐसे कुगुरुओं से सदा बचते रहना चाहिए।
निर्ग्रन्थ गुरु सदा मोक्षमार्ग में लगे रहते हैं तथा शिष्यों को भी मोक्षमार्ग में लगाते हैं। इसलिए ऐसे श्रेष्ठ गुरुओं की सेवा से इस जीव को शीघ्र ही मोक्ष की प्राप्ति हो जाती है।80
गुरु होने का दम्भ भरनेवाले या विशेष प्रकार का वेश धारण करनेवाले कुगुरुओं को पहचानना आसान नहीं है। इसलिए कुगुरुओं की पहचान करने के लिए पण्डित टोडरमल कुछ संकेत देते हुए कहते हैं:
जो जीव विषय-कषायादि (विषय-विकारादि) अधर्मरूप तो परिणमित होते (कर्म करते) हैं, और मानादिक से अपने को धर्मात्मा मानते हैं, धर्मात्मा के योग्य नमस्कारादि क्रिया कराते हैं, अथवा किंचित् धर्म का