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जैन धर्म : सार सन्देश के कहने में आकर ग़लत मार्ग में लग जायें तो हम अपने लक्ष्य से विमुख हो जायेंगे और अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर अनेक योनियों में भटकते रहेंगे। इस प्रकार हमारा मानव-जीवन विफल हो जायेगा। इसलिए गुरु धारण करने में अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। इसे स्पष्ट करते हुए हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं:
गुरु के स्वरूप को समझने में अत्यन्त सावधानी की आवश्कता है, क्योंकि गुरु तो मुक्ति के साक्षात् मार्ग-दर्शक होते हैं। यदि उनके स्वरूप को भली-भाँति न समझ पाया तो ग़लत गुरु के संयोग से भटक जाने की सम्भावना अधिक बनी रहती है।
इसलिए गुरु धारण करने के पहले उनके सम्बन्ध में, जहाँ तक बन पड़े, जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए। जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु धारण किया जाता है, वह मनुष्य-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इसलिए बिना सोचे-समझे किसी अन्ध परम्परा के प्रभाव में आकर या किसी प्रचलित लोक-रीति को निभाने के लिए किसी को गुरु धारण करना हितकारक होने के बदले हानिकारक हो सकता है। इसलिए हमें अच्छी तरह समझ-बूझकर नक़ली या ढोंगी गुरु से बचे रहना चाहिए और केवल सच्चे गुरु को ही धारण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं:
प्रत्येक व्यक्ति को संसार में फैले हुए हर एक 'धर्म' नामक वस्तु पर या देवी, देवताओं, धर्म शास्त्रों और गुरुओं पर अन्धे होकर विश्वास कभी न करना चाहिए। जब हम पैसे की हाँडी को भी ठोक बजा कर मोल लेते हैं तो जिस धर्म या देव, गुरु आदि के द्वारा हम संसार-समुद्र से पार होकर सच्चा सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उसका अन्धे होकर सहारा लेना, चाहे उससे हानि के बदले लाभ ही क्यों न हो, बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती।...जो आत्म ज्ञान से शून्य, रात-दिन विषय कषायों में मस्त रहा करता है, वह रागी, द्वेषी, आडम्बरी और ढोंगी साधु कदापि सच्चा गुरु नहीं हो सकता।"