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________________ 210 जैन धर्म : सार सन्देश के कहने में आकर ग़लत मार्ग में लग जायें तो हम अपने लक्ष्य से विमुख हो जायेंगे और अपने लक्ष्य की प्राप्ति न कर अनेक योनियों में भटकते रहेंगे। इस प्रकार हमारा मानव-जीवन विफल हो जायेगा। इसलिए गुरु धारण करने में अत्यन्त सावधानी की आवश्यकता है। इसे स्पष्ट करते हुए हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं: गुरु के स्वरूप को समझने में अत्यन्त सावधानी की आवश्कता है, क्योंकि गुरु तो मुक्ति के साक्षात् मार्ग-दर्शक होते हैं। यदि उनके स्वरूप को भली-भाँति न समझ पाया तो ग़लत गुरु के संयोग से भटक जाने की सम्भावना अधिक बनी रहती है। इसलिए गुरु धारण करने के पहले उनके सम्बन्ध में, जहाँ तक बन पड़े, जाँच-पड़ताल कर लेनी चाहिए। जिस उद्देश्य की पूर्ति के लिए गुरु धारण किया जाता है, वह मनुष्य-जीवन का सबसे महत्त्वपूर्ण उद्देश्य है। इसलिए बिना सोचे-समझे किसी अन्ध परम्परा के प्रभाव में आकर या किसी प्रचलित लोक-रीति को निभाने के लिए किसी को गुरु धारण करना हितकारक होने के बदले हानिकारक हो सकता है। इसलिए हमें अच्छी तरह समझ-बूझकर नक़ली या ढोंगी गुरु से बचे रहना चाहिए और केवल सच्चे गुरु को ही धारण करना चाहिए। इस सम्बन्ध में नाथूराम डोंगरीय जैन कहते हैं: प्रत्येक व्यक्ति को संसार में फैले हुए हर एक 'धर्म' नामक वस्तु पर या देवी, देवताओं, धर्म शास्त्रों और गुरुओं पर अन्धे होकर विश्वास कभी न करना चाहिए। जब हम पैसे की हाँडी को भी ठोक बजा कर मोल लेते हैं तो जिस धर्म या देव, गुरु आदि के द्वारा हम संसार-समुद्र से पार होकर सच्चा सुख प्राप्त करना चाहते हैं, उसका अन्धे होकर सहारा लेना, चाहे उससे हानि के बदले लाभ ही क्यों न हो, बुद्धिमत्ता नहीं हो सकती।...जो आत्म ज्ञान से शून्य, रात-दिन विषय कषायों में मस्त रहा करता है, वह रागी, द्वेषी, आडम्बरी और ढोंगी साधु कदापि सच्चा गुरु नहीं हो सकता।"
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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