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गुरु
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तुम परमेश मोखमग दर्शक, मोह दवानल नीर ॥ तुम बिन हेत जगत उपकारी, शुद्ध चिदानन्द धीर। गनपति ज्ञान समुद्र न लंघे, तुम गुन सिंधु गंभीर॥ याद नहीं मैं विपत्ति सही जो, धर-धर अमित शरीर। तुम गुन चिंतत नशत तथा भय, ज्यों घन चलत समीर॥ कोटि बार की अरज यही है, मैं दुख सहूं अधीर। हरहु वेदना फन्द "दौल" की, कतर कर्म-जंजीर॥/ अर्थ-हे वीर! हमारी संसार-चक्र की व्यथा को दूर कीजिए। हे दया-अनुकम्पा के समुद्र ! हे परम कारुणिक ! मैं दुःखों से संतप्त हूँ
और दुःख-परिहारार्थ (दुःख से मुक्त होने के लिए) आपके कृपासिंधु तट पर उपस्थित हुआ हूँ। आप परमेश्वर हैं, मोक्षपथ के दर्शयिता हैं तथा मोहरूप प्रचण्ड दावानल को शमन करने में नीर-समान हैं। आप बिना हेतु के विश्व का उपकार करनेवाले हैं, शुद्ध परमात्मा हैं, धीर हैं। आपके अपार ज्ञान-समुद्र को गणपति भी उल्लंघन नहीं कर सकते (अर्थात् उसका पार नहीं पा सकते), आप गम्भीर गुण-सिन्धु हैं। मैंने अनन्त शरीर धारण करते हुए जिन विपत्तियों को सहन किया, उनका स्मरण नहीं है, अर्थात् वे इतनी अधिक तथा विपुल हैं कि स्मरण रखना भी दुष्कर (कठिन) है। आपके गुणों का चिन्तन करने से उन समस्त भयों का वैसे ही नाश हो जाता है जैसे पवन के चलने से बादल छितरा जाते हैं। मेरी यही कोटिशः प्रार्थना है कि मैं अधीर दुःख भुगत रहा हूँ आप इस "दौलत" की कर्म शृंखलाओं का निकृन्तन (नाश) करके वेदना-जाल से मुक्त कर दीजिए।"
कुगुरु की सेवा से हानि मनुष्य-जीवन में ही मोक्ष की प्राप्ति हो सकती है। वास्तव में मोक्ष-प्राप्ति ही मनुष्य-जीवन का लक्ष्य है। इस लक्ष्य की प्राप्ति गुरु की कृपा और सहायता से ही होती है। गुरु ही मोक्ष का मार्ग दिखलाते हैं। इसलिए यदि सही मार्ग दिखलानेवाले गुरु की खोज किये बिना हम किसी नक़ली या पाखण्डी गुरु