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स्वार्थ-त्याग की कठिन तपस्या, बिना खेद जो करते हैं । ऐसे ज्ञानी साधु जगत के, दुःख समूह को हरते हैं ॥ 2 ॥ रहे सदा सत्संग उन्हीं का, ध्यान उन्हीं का नित्य रहे । उनही जैसी चर्या में यह चित्त सदा अनुरक्त रहे ॥ 74
हुकमचन्द भारिल्ल ने भी अपनी गुरु-स्तुति में ऐसी ही भक्ति - भावना प्रकट की है:
उस वाणी के अन्तर्तम को, जिन गुरुओं ने पहिचाना है। उन गुरुवर्यों के चरणों में, मस्तक बस हमें झुकाना है ॥75
जैन धर्म : सार सन्देश
गुरु से मिलने और गुरु को अपने हृदय में बसाने की कितनी प्रबल इच्छा शिष्य को होनी चाहिए उसकी एक झलक भूधरदास जी की इस भाव - बिनती में देखी जा सकती है:
-भरी
/जिनके अनुग्रह बिन कभी नहिं कटे कर्म जंजीर।
ते साधु मेरे उर बसो मम हरहु पातक पीर ॥
जो काँच कंचन सम गिनही अरि मित्र एक सरूप ॥ निन्दा बड़ाई सारिखी वन खंड शहर अनूप ॥ सुख दुःख जीवन मरण में नहीं खुशी नहीं दिलगीर । साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ॥
कर जोड़ भूधर बीनवे कब मिलें वे मुनिराज । यह आश मन की कब फलैं मम सरहिं सगरे काज ।
संसार विषम विदेश में जे बिना कारण बीर । साधु मेरे उर बसहु मम हरहु पातक पीर ॥ 76
ते
दौलतराम जी भी अपनी विनती में शिष्य की विनम्रता और उसके मनोभाव को बड़े ही मार्मिक ढंग से व्यक्त करते हुए कहते हैं:
हमारी वीर हरो भव पीर ।
मैं, दुख तपित दयामृत-सागर, लखि आयो तुम तीर,