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________________ 207 नृजन्मलाभे स्वविवेकदं वा, सुदुर्लभं श्रेष्ठगुरुं च लब्ध्वा। कदापि चित्ते कुरु मा प्रमादं, क्षमस्व लोकस्थितसर्वजीवान् ॥ अर्थ-इस संसार में मनुष्य-जन्म की प्राप्ति होना अत्यन्त कठिन है। यदि किसी विशेष पुण्यकर्म के उदय से मनुष्यजन्म की प्राप्ति हो जाय और फिर उसी मनुष्य-जन्म में अपने आत्मज्ञान को देनेवाले अत्यन्त दुर्लभ और कृपा के सागर श्रेष्ठ निर्ग्रन्थ (बन्धन-मुक्त) गुरु की प्राप्ति हो जाय तो फिर मनुष्य को अपने हृदय में कभी प्रमाद नहीं करना चाहिए। तीनों लोकों में जितने जीव हैं उन सब को क्षमा कर देना चाहिए (अर्थात्. उनके प्रति सदा अहिंसा और क्षमा का भाव रखना चाहिए)।2 गुरु के अनुपम उपकार को ध्यान में रखते हुए शिष्य के हृदय में गुरु के प्रति सबसे अधिक श्रद्धा और भक्ति का भाव होना चाहिए। जैन सिद्धान्त प्रवेश रत्नमाला के अनुसार शिष्य की दृष्टि से गुरु की महिमा गोविन्द से भी बढ़कर है, क्योंकि वे ही कृपाकर गोविन्द (परमात्मा) से मिलने का मार्ग दिखलाकर गोविन्द से मिलाते हैं। तभी तो इस ग्रन्थ में कहा गया है : गुरु अरु देव दोनों खड़े, किसके लागू पाँय। बलिहारी श्री गुरुदेव की, भगवन दियो बताय॥ शिष्य को अपने गुरु के प्रति गहरी भक्ति-भावना होनी चाहिए और उसके चित्त में गुरु के सत्संग और गुरु के ध्यान का सदा चाव रहना चाहिए। नीचे दी गयी प्रार्थना में भक्त अपने गुरु की महिमा का गुण-गान करता हुआ उनके प्रति ऐसी ही भावना व्यक्त करता है: जिसने राग द्वेष कामादिक जीते, सब जग जान लिया। सब जीवों को मोक्ष मार्ग का, निस्पृह हो उपदेश दिया। बुद्ध, वीर, जिन, हरि, हर ब्रह्मा, या उसको स्वाधीन कहो। भक्ति भाव से प्रेरित हो, यह चित्त उसी में लीन रहो॥1॥ विषयों की आशा नहिं जिनके, साम्य-भाव धन रखते हैं। निज-पर के हित-साधन में, जो निश-दिन तत्पर रहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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