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________________ 206 जैन धर्म: सार सन्देश रहता है, और जो चेतन है वह तीनों काल चेतन ही रहता है। जड़ और चेतन कभी भी एक नहीं होते; शरीर और आत्मा सदैव जुदे ही हैं। ऐसे आत्मा को अनुभव में लेने से सम्यग्दर्शन होकर अपूर्व शांति होती है। ऐसे आत्मा की धर्मदृष्टि के बिना मिथ्यात्व मिटता नहीं, दुःख टलता नहीं और शांति होती नहीं। ...शरीर तो जड़, अर्थात् चेतन से रहित मृतक कलेवर है-क्या उसकी सजावट से आत्मा की शोभा है?-नहीं; भाई! सम्यक्त्व रूपी मुकुट से और चारित्र रूपी हार से अपनी आत्मा को अलंकृत करो। सम्यग्दर्शन-ज्ञान-चारित्र रूप रत्नत्रय से आत्मा की शोभा है। चेतन भगवान् की शोभा जड़ शरीर द्वारा नहीं होती; अतः देहदृष्टि छोड़कर आत्मा को पहचानो-ऐसा उपदेश है।...आत्मा का सच्चा स्वरूप समझो और अपनी मिथ्यात्वरूप भूल को दूर करो,-ऐसी श्री गुरु की शिक्षा है। - शिष्य को गुरु के बचन को अपने हृदय में बसा लेना चाहिए और उनके बताये साधन द्वारा मोक्ष की प्राप्ति के लिए प्रयत्नशील रहना चाहिए। अपने शरीर के सुख-आराम के लिए नाहक समय गँवाना उचित नहीं। इसी भावना को प्रकट करते हुए आचार्य पद्मनन्दि कहते हैं : भवतु भवतु यादृक् तादृगेतद्वपुर्ने। हृदि गुरुवचनं चेदस्ति तत्तत्त्वदर्शि॥ त्वरितमसमसारानंदकंदायमाना। भवति यदनुभावादक्षया मोक्षलक्ष्मीः ॥ भावार्थ-यद्यपि यह शरीर ऐसा अपवित्र क्षणिक है सो ऐसा ही रहे, परंतु यदि परम गुरु का वचन जो तत्त्व को दिखलानेवाला है मेरे मन में रहे तो उसके प्रभाव से अर्थात् उस उपदेश पर चलने से मुझे इसी शरीर द्वारा अनुपम और अविनाशी आनन्द से भरपूर मोक्षलक्ष्मी शीघ्र ही प्राप्त हो जावे॥ श्रावक प्रतिक्रमणसार में भी कहा गया है कि श्रेष्ठ गुरु को प्राप्त कर प्रमादरहित हो (लापरवाही को त्यागकर) अपने लक्ष्य की प्राप्ति में दृढ़ता से लगे रहना चाहिए:
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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