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(असीम) है। अपने से भिन्न (पर) में आत्मभावना करने के कारण ही तू भव (संसार-चक्र) में पड़ा है, और तूने अपने संसार का विस्तार किया है। अब आत्मभावना या आत्मध्यान द्वारा तू परमात्मा को प्राप्त कर सकता है जो अविनाशी, अनुपम, निर्मल, अचल, परमपदरूप, सारतत्त्व, सत्-चित्-आनन्दमय, अविकारी, चेतन, अरूपी, अजर और अमर है। तो फिर ऐसी भावना क्यों न की जाय?69*
शरीर और इन्द्रियों के सुख-आराम में भूलकर आत्मज्ञान और आत्मसुख की प्राप्ति में शिथिलता या लापरवाही दिखलाना भारी भूल है। आत्मज्ञान से ही मोक्षसुख की प्राप्ति होती है। इसलिए शिष्य को शरीरादि की अपेक्षा अपनी आत्मा को सँवारने और उसे रत्नत्रय के अलंकार से सुशोभित करने का प्रयत्न करना चाहिए। इसे समझाते हुए कानजी स्वामी कहते हैं :
जीव व्यर्थ का मोह करके दुःखी होता है। मेरी माता, मेरा पुत्र, मेरी पुत्री, मेरी बहिन, मेरा भाई-ऐसा ममत्व करता है, परन्तु हे जीव! तू तो ज्ञान है, तू तो आनन्द है; ऐसे अपने ज्ञान-आनन्द को अनुभव में ले; वे तुझसे कभी जुदे नहीं होवेंगे। माता-पुत्र, पति-पत्नी, भाई-बहन तो जुदे ही हैं; वे यदि आत्मा के होते तो जुदे क्यों पड़ते ? और उनके बिना आत्मा कैसे टिकती? आत्मा तो उन सबसे भिन्न ज्ञानानन्द स्वरूप है; उसका ज्ञान उससे कभी जुदा नहीं पड़ता! ऐसे ज्ञानस्वरूप से जब अपने को अनुभव में ले तभी आत्मा का सच्चा ज्ञान होता है और तभी आत्मा को पर से भिन्न मानना कहलाता है। शरीर सुन्दर हो या कुरूप-वह जड़ का रूप है, आत्मा उस रूप कभी नहीं हुआ। जो जड़ है वह तीनों काल जड़ ही
* परकौं आपा मानि, आप मानिदुःखी भया। कोई दूजा नाहीं दुःखदाता, तेरी भावना ने भव
बनाया, ना पैद पैदा किया, परकौं देखि आपा भूल्या, अविद्या तेरी ही फैलाई है। तू अविद्या रूप कर्मन परि आपा न दै, तौ किछु जड़का जोर नाहीं। तारौं अपरम्पार शक्ति तेरी है। भावना पर की करि भव करता भया, संसार बढ़ाया। निज भावना” अविनाशी अनुपम अमल अचल परम पद रूप आनन्द घन अविकारी सार सत् चिन्मय चेतन अरूपी अजरामर परमात्मा कौं पावै है। तौ ऐसी भावना क्यों न करिये? (टिप्पणी 69 का मूल रूप)