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जैन धर्म : सार सन्देश विनीत साधक प्रेरणा बिना ही प्रेरित होता है, उधर आज्ञा हुई और इधर काम पूरा हुआ ऐसी तत्परता के साथ वह सदैव अपने कर्तव्य करता रहता है।
शिक्षा सम्बन्धी उपरोक्त नियमों को जानकर जो बुद्धिमान् शिष्य विनय धारण करता है उसका यश लोक में फैलता है। और जैसे यह पृथ्वी प्राणिमात्र की आधार है वैसे ही वह विनयी शिष्य आचार्यों (गुरुओं) का आधारभूत होकर रहता है।
शिष्य को सदा गुरु की आज्ञा में रहते हुए और अपनी पूरी ज़िम्मेदारी निभाते हुए गुरु के उपदेश का पालन करना चाहिए। गुरु की बतायी साधना में दृढ़तापूर्वक लगना, सांसारिक पदार्थों में मैं-मेरी की भावना (आपाभाव) को नष्ट करना और अपने वास्तविक स्वरूप का अनुभव प्राप्त करने के लिए भरपूर प्रयत्न करना शिष्य का अत्यन्त आवश्यक कर्तव्य है। इसके लिए गुरुदेव बार-बार उपदेश देते हैं, चिताते हैं और प्रेरित करते हैं। पर यह कार्य तो शिष्य को स्वयं ही करना है, इसके बदले में कोई दूसरा तो नहीं कर सकता। पर में (आत्मा से भिन्न पादर्थों में) आपाभाव मानकर जीव ने स्वयं ही अपने को दुःख में डाल रखा है। इसलिए उसे स्वयं ही इस झूठे आपाभाव को मिटाना होगा और आत्मानुभव प्राप्त कर अपने दुःखों को दूर करना होगा। इसे स्पष्ट करते हुए अनुभव प्रकाश में कहा गया है:
जो पर (अपने से भिन्न) है, अर्थात् जो अपना नहीं है. उसे अपना मानकर अपने ही आपाभाव (मैं-मेरी के भाव) से तू दुःखी बना हुआ है। तुझे दुःख देनेवाला कोई दूसरा नहीं है, तेरी ही भावना ने तेरा भव (संसार) बनाया है, अजन्मा (जन्मरहित आत्मा) को जन्म दिया है। ...अपने से भिन्न (पर) को देखकर तू ने अपने को भुला दिया इस प्रकार यह अविद्या तेरी ही फैलायी हुई है। इस अविद्याभाव से जो कर्म किये जाते हैं उनमें से तू आत्मभाव को निकाल ले। फिर आत्मभाव के निकल जानेपर जड़ कर्म तेरा कुछ भी बिगाड़ नहीं सकेंगे, अर्थात् तू निष्कर्मी और निर्विकारी बना रहेगा। इस प्रकार तेरी शक्ति अपरम्पार