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________________ 203 आज्ञा का उल्लंघन करनेवाले, गुरुजनों के हृदय से दूर रहनेवाले, शत्रु समान विरोधी तथा विवेकहीन साधक को अविनीत (उदण्ड, गुस्ताख़) कहते हैं। महापुरुषों की शिक्षा से क्रुद्ध नहीं होना चाहिए। चतुर होकर सहनशीलता रखनी चाहिए। कोप (क्रोध) करना चाण्डाल कर्म है जो नहीं करना चाहिए। व्यर्थ बकवाद मत करो। समय की अनुकूलता के अनुसार उपदेश श्रवण कर फिर उसका एकान्त में चिन्तन-मनन करना चाहिए। भूल से यदि कदाचित् चाण्डाल भाव क्रोध हो जाये तो उसे कभी मत छुपाओ। जो दोष हो जाये उसे गुरुजनों के समक्ष स्वीकार कर लो। यदि अपना दोष न हो तो विनयपूर्वक उसको स्पष्ट कर देना चाहिए। यह मेरा परम सौभाग्य है कि महापुरुष मुझे मीठा उपालम्भ (शिकायत या उलाहना) अथवा कठोर शब्दों में भर्त्सना करते हैं। इससे मेरा परम कल्याण होगा, ऐसा मानकर उसका विवेकपूर्वक पालन करे। गुरुजन की शिक्षा, दण्ड कठोर तथा कठिन होने पर भी दुष्कृत की नाशक होती है। इसलिए चतुर साधक उसको अपना हितकारी मानता है। किन्तु असाधु जन उसको द्वेष-जनक तथा क्रोधकारी समझ बैठता है। साधु पुरुष तो यह समझता है कि गुरुजी मुझ को अपने पुत्र, लघुभ्राता अथवा स्वजन के समान मानकर ऐसा कर रहे हैं। इसलिए वह गुरुजी की शिक्षा (दण्ड) को अपना कल्याणकारी मानता है। किन्तु पाप दृष्टिवाला शिष्य उस दशा में अपने को दास मानकर दुःखी होता है। यदि कदाचित् आचार्य (गुरु) क्रुद्ध हो जायें तो अपने प्रेम से उनको प्रसन्न करे। हाथ जोड़कर उनकी विनय करे तथा क्षमा माँगते हुए उनको विश्वास दिलाये कि भविष्य में वैसा दोष फिर कभी न करूंगा। ____ आचार्य (गुरु) के मन का भाव जानकर अथवा उनका वचन सुनकर सुशिष्य को उसे वाणी द्वारा स्वीकार कर कार्य द्वारा उसे आचरण में लाना चाहिए।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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