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________________ 202 जैन धर्म : सार सन्देश जीने बराबर है। वर्तमान में हंस देखने में नहीं आते हैं तो कौआ को तो हंस नहीं मानना चाहिए। इसी प्रकार यथार्थ गुरु न मिलें तो भावना यह रखनी चाहिए कि ऐसे निस्पृही गुरु कब मिलें; वह भावना भी सातिशय पुण्य बन्ध की जननी (अत्यधिक पुण्य कर्म उत्पन्न करनेवाली) है। यह बताते हुए कि सन्त सद्गुरु की सेवा द्वारा ही परम आनन्दमय धाम की प्राप्ति होती है, चम्पक सागर जी महाराज कहते हैं : / तन मनकी पीड़ा टले, भवका होवे ज्ञान। संत चरणको सेवते, पावे सुख निधान ॥ आचार्य कुन्थुसागर जी महाराज बड़े ही स्पष्ट शब्दों में कहते हैं कि जो गुरु धारण नहीं करते और उनकी सेवा से दूर रहते हैं उनकी न लोक में शोभा होती है और न परलोक में ही। वे निगुरा या गुरुमार कहे जाते हैं और तिरस्कार (अपमान या अनादर) के पात्र माने जाते हैं। आचार्य जी कहते हैं : जो लोग गुरुओं की सेवा नहीं करते अथवा अपने गुरुओं को नहीं मानते वे गुरुमार कहलाते हैं और इसीलिए न तो वे संसार में शोभा पाते हैं और न उनकी विद्या पूर्णरूप से विकसित होती है। विकसित न होने से वह विद्या पूर्णरूप से अपने कार्य को भी नहीं कर सकती। इसलिए गुरुओं की सेवा करना गुरुओं को मानना, उनका समागम करना आदि कार्य प्रत्येक जीवको आत्मकल्याण करने के लिए परमावश्यक हैं। आज्ञाकारिता, विनम्रता और सहनशीलता शिष्य के विशेष शृंगार हैं, अर्थात् इनसे शिष्य की विशेष रूप से शोभा होती है। शिष्य के लिए ये अत्यधिक लाभकारी भी हैं। इन गुणों को धारण करनेवाला शिष्य शीघ्र ही गुरु की प्रसन्नता प्राप्त कर अपना कल्याण कर लेता है। शिष्य के इन गुणों पर प्रकाश डालते हुए जिन-वाणी में कहा गया है: जो गुरु की आज्ञा का पालन करनेवाला हो, अन्तेवासी, अर्थात् गुरु के निकट रहनेवाला हो तथा अपने गुरु के इंगित इशारे तथा आकार मनोभाव का जानकार हो उसे विनीत कहते हैं।
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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