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________________ 201 ऐसे गुरुओं का समागम मिलने पर तथा उनसे निर्मल व्रतों को ग्रहण कर लेने पर फिर उन व्रतों को बड़े प्रयत्न से पालन करना चाहिए। उनमें न तो दोष लगाना चाहिए और न उनको भंग करना चाहिए। इस प्रकार निर्दोष व्रत के पालन करने से ही श्रावक-जन्म (साधक का जन्म) कृतार्थ गिना जाता है। इस प्रकार व्रत (सदाचार) पालन से मन भी उन व्रतों में तथा धर्म वा शील पालन में अत्यन्त दृढ़ हो जाता है। शिष्य अधूरे ज्ञान के आधार पर अपने लक्ष्य को प्राप्त नहीं कर सकता। अपने लक्ष्य की प्राप्ति के लिए उसे पूर्ण ज्ञान की आवश्यकता होती है। पूर्ण ज्ञान केवल परमात्मरूप पूर्ण ज्ञानी गुरु द्वारा ही प्राप्त हो सकता है। पर ऐसे पूर्ण ज्ञानी गुरु का पूर्ण लाभ उठाने के लिए शिष्य को भी पूरी शुद्धता और दृढ़ता के साथ उनके बताये उपदेशों का पालन करना आवश्यक है। इस बात की ओर संकेत करते हुए हुकमचन्द भारिल्ल कहते हैं: परमात्मा वीतरागी और पूर्णज्ञानी होते हैं, अत: उनका उपासक भी वीतरागता और पूर्णज्ञान का उपासक होना चाहिए। विषय-कषाय (विषय-विकारों) का अभिलाषी वीतराग का उपासक हो ही नहीं सकता।64 गुरु सर्वज्ञाता ही नहीं, सर्वदाता अर्थात् सब कुछ देनेवाले भी होते हैं। शिष्य के पास उनको देने के लिए भला है ही क्या? फिर भी शिष्य को श्रद्धाभाव से अपने तन-मन-धन द्वारा उनकी सेवा और भक्ति करनी चाहिए और अपना सर्वस्व उन्हें समर्पित करने को तैयार रहना चाहिए। यदि सच्चे गुरु न मिल पाये हों, तो उनसे मिलने की तीव्र चाह या लालसा अपने हृदय में सँजोये रखनी चाहिए। सच्ची चाह रखनेवाले को सच्ची राह दिखानेवाले कभी न कभी मिल ही जाते हैं। सच्चे गुरु की तन, मन, धन से भक्ति करने का उपदेश देते हुए मूलशंकर देशाई कहते हैं : गुरु ऐसे ही (निस्पृह या लोभरहित) होते हैं ऐसी श्रद्धा रखनी चाहिए और ऐसे गुरु मिलने से उनकी तन मन धन से भक्ति करनी चाहिए। ऐसे गुरु न मिलें तो वेषधारी की भक्ति करना यह तो मात्र जहर खाकर
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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