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जैन धर्म : सार सन्देश
पूछता
जानकर अति प्रीतिपूर्वक शास्त्र सुनता है; कुछ पूछना हो सो है; तथा गुरुओं के कहे अर्थ को अपने अन्तरङ्ग में बारम्बार विचारता है और अपने विचार से सत्य अर्थों का निश्चय करके जो कर्त्तव्य हो उसका उद्यमी होता है। 62
पारमार्थिक मार्ग पर चलनेवाले साधक को अपने आहार, व्यवहार, आचार और विचार को शुद्ध रखना और गुरु के बताये सदाचार के नियमों का दृढ़ता से पालन करना अत्यन्त आवश्यक है । इसे समझाते हुए आचार्य कुन्थुसागरजी महाराज कहते हैं :
आत्मा को शुद्ध करने वाले आत्मा के शुद्ध भाव हैं। जिस आत्मा का शरीर शुद्ध होता है उसके भाव भी शुद्ध होते हैं । जिसका शरीर अशुद्ध होता है उसके भाव भी अशुद्ध होते हैं। इस शरीर के बनने और बढ़ने में यदि कारण सामग्री अशुद्ध होती है तो यह शरीर भी अशुद्ध होता है तथा शरीर के बनने वा बढ़ने के साधन यदि शुद्ध होते हैं तो शरीर भी शुद्ध ही होता है। मनुष्य जो भोजन करता है वह भी शरीर के बढ़ने का कारण है। शुद्ध शरीर भी उन मद्य मांसादिक अशुद्ध पदार्थों के सेवन करने से अवश्य ही अशुद्ध हो जाता है। जहाँ शरीर की अशुद्धता होती है वहाँ पर परिणामों (आन्तरिक भावों) में अशुद्धता होना स्वाभाविक है । इसीलिए इन मद्य मांसादिक के सेवन को धर्म का नाश करनेवाला बतलाया है।
इसके सिवाय ये पदार्थ अत्यन्त घृणित हैं, देखने योग्य भी नहीं हैं। अनेक जीवों का घात करने से उत्पन्न होते हैं । इनके सेवन करने से क्षण भर के लिए जिह्वा का स्वाद भले ही मिल जाय, परन्तु वह क्षण भर का स्वाद अनन्त दुःखों को देनेवाला होता है। इसलिए हे आत्मन्! तू इनके सेवन करने का सर्वथा त्याग कर। इनका त्याग करने से शरीर पवित्र होता है वा उससे आत्मा वा उसका भाव पवित्र होता है।
प्रथम तो श्रेष्ठ गुरुओं का समागम मिलना ही अति कठिन है । किसी विशेष शुभ कर्म के उदय से ही गुरुओं का समागम मिलता है।