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गुरु
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उत्साह और सहायता प्रदान करते हैं। पर शिष्य यदि गुरु की बात ही न सुने, उनसे विमुख रहे और क्रोध, मान, माया, लोभ आदि का शिकार होकर कुमार्ग पर चले, तो उसका निस्तार भला कैसे हो सकता है ? यदि हितोपदेशी गुरु जीव-कल्याण के लिए उपदेश देते हैं तो अपना कल्याण चाहनेवाले जीव को भी उस उपदेश का लाभ उठाने के लिए अपने आवश्यक कर्तव्य को निभाना अत्यन्त आवश्यक है। यदि कोई पात्र औंधा हुआ (उलटा मुँह) पड़ा हो या गन्दगी अर्थात् विकारों से भरा हो तो वह भला गुरु का पवित्र अमृतमय उपदेश कैसे ग्रहण कर सकता है ? इसलिए यह आवश्यक है कि जीव अपने जीवन की शुद्धता पर ध्यान दे, सदाचार के आवश्यक नियमों का पालन करे, श्रद्धाभाव से गुरु के पास जाये, गुरु के उपदेशों को सुने, उनसे दीक्षा ले और फिर दृढ़ता के साथ गुरु के बताये मार्ग पर चले। शिष्य के लिए विनम्रभाव से गुरु की आज्ञा में रहना तथा उनकी सेवा और भक्ति करना आवश्यक है। फिर संयमपूर्वक आत्म-साधना में लगकर आत्म-शुद्धि करना और आत्मज्ञान की प्राप्ति करना सहज हो जाता है। इन आवश्यक कर्तव्यों का दृढ़तापूर्वक पालन करनेवाला शिष्य ही गुरु-कृपा का पूरा लाभ उठाकर अपने जीवन को सफल बना सकता है। शिष्य के कर्तव्य-सम्बन्धी ऐसी ही कुछ बातों पर यहाँ जैनाचार्यों के विचार प्रस्तुत किये जा रहे हैं।
जो भाग्यशाली जीव हैं वे ही अपने स्वरूप को समझने और अपने दुःखों को दूर करने के सम्बन्ध में गहराई से सोचते हैं। वे किसी सच्चे गुरु की खोज करते हैं, उनके पास जाकर उनसे उपदेश ग्रहण करते हैं और उनके उपदेशानुसार आध्यात्मिक अभ्यास में लगकर अपने जीवन को सँवारने का प्रयत्न करते हैं। इस सम्बन्ध में पंडित टोडरमल जी कहते हैं:
भला होनहार है इसलिए जिस जीव को ऐसा विचार आता है कि मैं कौन हूँ? मेरा क्या स्वरूप है? जीव दुःखी हो रहा है सो दुःख दूर होने का क्या उपाय है?–मुझको इतनी बातों का निर्णय करके जो कुछ मेरा हित हो सो करना चाहिए-ऐसे विचार से उद्यमवन्त (प्रयत्नशील) होता है। पुनश्च, इस कार्य की सिद्धि शास्त्र सुनने से होती है ऐसा