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जैन धर्म: सार सन्देश मान रही थी। यही भूल उसके दुःख का मूल है। सद्गुरु के वचनरूपी अमृत के पीने पर ही यह भूल मिटती है। जब आत्मचेतना जागृत होती है, तब अन्य पदार्थों की ओर देखना दूर हो जाता है। अपने स्वरूप और अपने पद को देखते ही आत्मा को यह अनुभव हो जाता है कि उसका पद तो तीनों लोकों के स्वामी का है।60*
इसी अवर्णनीय अनुभव का संकेत देते हुए ज्ञानदर्पण में कहा गया है: - मेरो सरूप अनूप विराजत मोहि में और न भासत आना। ज्ञान कला निधि चेतन मूरति एक अखण्ड महा सुख थाना॥ पूरन आप प्रताप लिएं जहाँ योग नहीं परके सब नाना। आप लखें अनुभाव भयौ अति देव निरंजन को उर आना।
अर्थ–मेरा अनुपम स्वरूप सुशोभित हो रहा है। मुझमें कोई और दूसरा नहीं दिखाई देता। यह ज्ञान की परिपूर्ण कलारूप एक अखण्ड चैतन्य मूर्ति है जो परमसुख का धाम है। यह अपने पूर्ण प्रताप के साथ प्रकाशित है। जिसमें अन्य सभी नाना प्रकार की वस्तुओं में से किसी का भी मिश्रण (मिलावट) नहीं है। अपने-आपके दर्शन से एक निराला अनुभव हआ है और निरंजन देव (निर्विकार परमात्मा) हृदय में विराजने लगे हैं।
यही है गुरु-कृपा का अद्भुत फल।
शिष्य का कर्तव्य . परम दयालु गुरु सहज भाव से जीवों पर दयाकर उन्हें उपदेश देते हैं, उन्हें मोक्ष का मार्ग दिखलाते हैं तथा उन्हें इस मार्ग पर चलने के लिए प्रेरणा,
* श्रीगुरू आपा बताया है। पावै ते सुखी होय। कहाँ लौ कहिये? यह महिमा निधान अमलान
अनूप पद आप बण्या है, सहज सुख कन्द है, अलख अखंडित है, अमिततेजधारी है। दुःख-द्वन्द्व मैं आपा मानि अति आनन्द मानि रह्या है अनादि ही का, सो यह दुःख की मूल भूलि जब ही मिटै, जब श्रीगुरु बचन सुधारस पीवै। चेत होय परकी ओर अवलोकन मिटै। स्वरूप स्वपद देखत ही तिहूँलोक नाथ अपना पद जानै। (टिप्पणी 60 का मूल रूप)