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इसलिए आत्म-कल्याण के इच्छुक जीवों को परम दुर्लभ सत्संग का लाभ अवश्य उठाना चाहिए। इसे समझाते हुए गणेशप्रसाद जी वर्णी कहते हैं:
वर्तमान में निष्कपट समागम का मिलना परम दुर्लभ है, जिस तरह दीपक से दीपक जलाया जाता है उसी तरह महात्माओं से महात्मा बनते हैं, अत: महात्माओं के सम्पर्क (साधु समागम) से एक दिन स्वयं महात्मा हो जाओगे।
सर्वज्ञाता, सर्वशक्तिमान् और परम दयालु सद्गुरु से कुछ माँगने की आवश्यकता नहीं होती। वे अपने सहज स्वभाव से ही जीवों पर दया करते हैं। इसलिए जीवों का कल्याण अपने-आप हो जाता है। वर्णी जी ने इसे एक सुन्दर उदाहरण द्वारा इस प्रकार स्पष्ट किया है:
जो छाया में वृक्ष के नीचे बैठ जाता है उसको इसकी आवश्कता नहीं कि वृक्ष से छाया की याचना करे। वृक्ष के नीचे बैठने से छाया का लाभ अपने-आप हो जाता है। इसी प्रकार जो रुचिपूर्वक श्री अरहन्तदेव के गुणों का स्मरण करता है उसके मन्द कषाय होने से शुभोपयोग (आत्मा का रागादि से रहित निश्चल दशा ग्रहण करना) स्वयमेव (अपने-आप ही) हो जाता है और उसके प्रभाव से शान्ति का लाभ भी स्वयं हो जाता है।
इस प्रकार सद्गुरु की कृपा से जीव को अपने आत्मस्वरूप का अनुभव हो जाता है। वह तीनों लोकों के स्वामी का पद प्राप्त कर उस सहज सुखधाम का निवासी बन जाता है जो परम ज्योतिर्मय, निर्मल और निराला है तथा उसके हृदय में निरंजन देव (निर्विकार परमात्मा) प्रकट हो जाते हैं। इसे बताते हुए अनुभव प्रकाश में कहा गया है:
श्री गुरु ने आत्मा का बोध कराया है। उसे पाकर ही जीव सुखी होता है। इसके विषय में कहाँ तक कहा जाय? यह आप ही निर्मल
और अनुपम पद है जिसकी महिमा अपार है। यह अलख, अखण्ड, परमज्योतिर्मय और सहज सुख का भण्डार है। पर यह आत्मा अनादि काल से संसार के दुःख-द्वन्द्व में ही आपाभाव मान कर उसीमें आनन्द