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________________ 196 जैन धर्म: सार सन्देश अतः वह गृहस्थाश्रम में रहता हुआ भी, गृहस्थाश्रम के सब कार्य करता हुआ भी, उनसे अलिप्त अछूता रहता है। अतः पापपङ्क से मलिन नहीं होता, जिस तरह कीचड़ में भी पड़ा हुआ सोना मैला नहीं होने पाता या जल में रहता हुआ कमल जल से अछूता रहता है। सम्यग्दर्शन होते ही ज्ञान और आचरण ठीक धारा में बह उठते हैं। तब उनका नाम सम्यग्ज्ञान सच्चारित्र (स्वरूपाचरणादि) हो जाता है। ऐसा व्यक्ति अवश्य स्वल्पकाल में संसार से मुक्त हो जाता है। यदि जीव सर्वज्ञ सद्गुरु के उपदेश के अनुसार अन्तर्मुखी अभ्यास द्वारा एक बार भी आत्मरस को चख ले तो उसे ऐसा आनन्द आयेगा कि वह फिर कभी मुड़कर भी सांसारिक विषयों की ओर नहीं देखेगा। जैसा कि अनुभव प्रकाश में कहा गया है: सर्वज्ञ देव ने सारे उपदेश का मूल तत्त्व यह बताया है कि जीव आत्मस्वरूप के अनुभव के रस का यदि एक बार स्वाद ले ले, तो वह ऐसे आनन्द में मग्न हो जायेगा कि अन्य वस्तुओं की ओर फिर कभी देखेगा भी नहीं। अपने स्वरूप में समाधि लगाकर अपने से एकाकार हो जाना सन्तों का चिह्न है। ऐसी अवस्था में रागादि विकार नहीं पाये जा सकते, जैसे आकाश में फूल नहीं पाये जाते। शरीर को आत्मा समझने के अभ्यास के नाश होने और चैतन्य और आनन्दरूप आत्मा के प्रकाश के अनुभव होने की अवस्था के लक्षण या उसकी विशेषता को लिखकर बताया नहीं जा सकता। इसे देखने, अर्थात् अनुभव करने से आनन्द मिलता है। इसका स्वाद लिखने में नहीं आ सकता।* ऐसा उपदेश सन्तों की संगति या सत्संग में ही प्राप्त होता है। केवल सन्त-महात्मा की संगति ही सन्त-महात्मा बना सकती है। * सर्वज्ञ देवनैं सब उपदेश का मूल यह बताया है, एक बेर स्वसंवेदरस का स्वादी होय तौ ऐसा आनन्दमैं मग्न होय, परकी ओर फिरि कबहूं दृष्टि न दे। स्वरूप समाधि संतन का चिह्न है। तिसके भये रागदि विकार न पाईये, जैसैं आकाशमैं फूल न पाईये। देह अभ्यास का नाश अनुभव प्रकाश चैतन्य विलास भावका लखाव लखि लक्ष्य लक्षण लिखनेमैं न आवै। लखें सुख होय। स्वाद रूप लिखै न होय। (टिप्पणी 57 का मूल रूप)
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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