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किन्तु भ्रम से वह उस सुगन्धि को अपने भीतर की न समझकर बाहर की अन्य वस्तुओं की समझता है, अतः इधर-उधर दौड़ता फिरता दूसरी-दूसरी चीज़ों को सूंघता-सूंघता थक जाता है किन्तु उसकी इच्छा की तृप्ति नहीं हो पाती। वैसे ही दशा तेरी है। अतः बाहर की ओर से अपनी विचारधारा हटाकर अपने अंतरंग की ओर सन्मुख हो, अन्तर्मुख होने पर ही तुझे शान्ति प्राप्त होगी, तेरी आकुलता दूर होगी और तेरी परतन्त्रता के बंधन ढीले होंगे। तेरे भीतर अपार अक्षय निधि भरी हुई है, तू अपने-आपको दीन-हीन क्यों समझ रहा है, एक बार अपनी
ओर देख तो सही।' ___ दीनबन्धु पतितपावन एवं तरनतारन अपने सद्गुरु की हितवाणी
को सुनकर जब इस जीव की मिथ्या श्रद्धा में परिवर्तन आता है, जब इसके हृदय में आत्म-श्रद्धा जागृत होती है, तब मिथ्या श्रद्धा का जनक (उत्पादक) मोहनीय कर्म स्वयं इस प्रकार दूर हो जाता है जिस तरह विस्तृत खुले मैदान में सूर्य उदय होने पर रात का अन्धेरा लापता हो जाता है, ढूँढ़ने पर भी वहाँ कहीं नहीं दीख पाता। मिथ्या श्रद्धा का गहन अन्धकार हटते ही इस जीव के भीतर आत्म-ज्योति जगमगा जाती है, जिससे आत्मा को अपनी अनुभूति (अनुभव) होने लगती है। उस स्व-आत्म अनुभूति से जीव को महान् अनुपम आनन्द प्राप्त होता है, वह संसार के किसी भी इष्ट भोग उपभोग पदार्थ के अनुभव से नहीं मिलता, वह निज-आत्मा का आनन्द न तो कहा जा सकता है, न किसी उदाहरण से प्रकट किया जा सकता है। जैसे गूंगा मनुष्य किसी विषय के सुख को स्वयं अनुभव तो करता है परन्तु किसी अन्य व्यक्ति को बतला नहीं सकता, ठीक ऐसी ही बात आत्म अनुभव की हो जाती है। उस आत्म-अनुभव को जैन दर्शन में 'सम्यग्दर्शन' कहा है।
सम्यग्दर्शन होते ही जीव की विचारधारा तथा कार्य प्रणाली में महान् परिवर्तन आ जाता है। उसे फिर अपने आत्मा के सिवाय अन्य किसी पदार्थ में रुचि नहीं रहती। वह बाहरी पदार्थों को छूता हुआ भी उनमें रत (लीन) नहीं होता, अछूता सा रहता है।