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जैन धर्म: सार सन्देश
ज्ञान और दर्शन (विश्वास) को धारण करनेवाली मेरी आत्मा चैतन्य और आनन्दरूप है। मेरा यह स्वरूप अनन्त चैतन्यशक्ति से सुशोभित और अनन्त गुणों से परिपूर्ण है। यह मेरे ही उपयोग के लिए है। मैं अपना ध्यान अपने इस स्वरूप में लगाऊँगा। इस प्रकार अनादि दुःख को मिटाऊँगा और परमपद को प्राप्त करूँगा। अपने स्वरूप-प्राप्ति की यह सुगम राह है। आत्मा को अपने अनुभव में लाना ही कठिन है। इसे भी सन्तों ने सुगम कर दिया है। मैंने भी इसे उन्हीं के प्रसादरूप में पाया है।
इस प्रकार आत्मा के अनुभव का प्रकाश प्राप्त करना ही आनन्द धाम में अखण्ड सुख भोगना है। इसे केवल अनुभव द्वारा ही जाना जाता है, वचन द्वारा व्यक्त नहीं किया जा सकता।55*
किसी सन्त सद्गुरु की संगति में आने पर जीव की विचारधारा कैसे बदलती है और वह किस प्रकार संसार में अनासक्त भाव से रहते हुए अन्त में मोक्षपद को प्राप्त करने में सफल होता है, इसे चम्पक सागरजी महाराज ने बड़े ही स्पष्ट और सुन्दर ढंग से प्रस्तुत किया है। वे कहते हैं:
यदि कभी आत्मा को सौभाग्य से किसी सद्गुरु का समागम हो जाता है, तो वे दयालु होकर इस मोही संसारी जीव को अपने परमहित उपदेश से सावधान करते हैं कि 'जिस सुख शान्ति के लिए तू बाहर भटक रहा है उस सुख शान्ति का अथाह सागर तो तेरे भीतर (शरीर में नहीं आत्मा में) हिलोरें ले रहा है। कस्तूरा हिरण की नाभि में कस्तूरी होती है उसकी मोहक सुगंधि में वह हिरण मस्त हो जाता है
* मेरा आत्मा ज्ञान दर्शन का धारी चिदानन्द है। मेरा स्वरूप अनन्त चैतन्यशक्ति करि मण्डित
अनन्त गुणमय है। मेरे उपयोग के आधीन बण्या है। मैं मेरे परिणाम उपयोग मेरे स्वरूपमैं धरूँगा। अनादि दुःख मेटूंगा। परमपद भेटूंगा। यह सुगम राह स्वरूप पावने का है। दृष्टि के गोचर करना ही दुर्लभ है। सो सन्तों ने सुगम कर दिया है। उनके प्रसाद नैं हमों ने पाया है। सो हमारा अखण्ड विलास सुख निवास इस अनुभव प्रकाश मैं है। वचनगोचर नाही, भावनागम्य है। (टिप्पणी 55 का मूल रूप)