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________________ 220 जैन धर्म : सार सन्देश और अपनी जली हुई ज्योति से उनकी बुझी हुई ज्योति को जलाते हैं। इसलिए जब तक कोई साधक किसी तीर्थंकर या सतगुरु से दीक्षित होकर उनके उपदेश का अभ्यास नहीं करता तब तक उसे तीर्थंकर की दिव्यध्वनि की आवाज़ और प्रकाश का अनुभव प्राप्त नहीं हो सकता। तीर्थंकर जीवों के कल्याण के लिए ही संसार में आते हैं। मोक्षमार्ग प्रकाशक में पण्डित टोडरमल जी कहते हैं: ऐसे जीवों का भला होने के कारणभूत तीर्थंकर केवली भगवानरूपी . सूर्य का उदय हुआ; उनकी दिव्यध्वनिरूपी किरणों द्वारा वहाँ से मुक्त होने का मार्ग प्रकाशित किया।4 किसी तीर्थंकर या सर्वज्ञदेव की दिव्यध्वनि का आश्रय लिए बिना आत्मतत्त्व के स्वरूप का ज्ञान सम्भव नहीं है। समयसार की प्रस्तावना में पण्डित पन्नालाल जी ने भी सीमन्धर स्वामी की दिव्यध्वनि द्वारा ही श्री कुन्दकुन्द स्वामी को आत्मतत्त्व का अनुभव प्राप्त होने की बात बतायी है। वे कहते हैं: श्री कुन्दकुन्द स्वामी के विषय में यह मान्यता प्रचलित है कि वे विदेह क्षेत्र गये थे और सीमन्धर स्वामी की दिव्यध्वनि से उन्होंने आत्मतत्त्व का स्वरूप प्राप्त किया था। आत्मतत्त्व के सच्चे स्वरूप या अनन्त ज्ञानरूप परमात्मा का अनुभव किसी तीर्थंकर या पूर्ण ज्ञानी महात्मा के माध्यम से (अर्थात् उनकी दिव्यध्वनि के सहारे) प्राप्त करने के अटल आध्यात्मिक नियम को एक उपमा द्वारा समझाया जा सकता है। अगाध समुद्र के जल को सीधे रूप से हम न पी सकते हैं और न हम इससे सिंचाई का काम ले सकते हैं। पर समुद्र का वही जल जब भाप बनकर बादल का रूप ले लेता है तो वह वर्षा बनकर बरसता है जिसे हम उचित विधि से अपने पीने के काम में ला सकते हैं और उससे सारी धरती भी हरी-भरी हो जाती है। इसी प्रकार समुद्ररूपी परमात्मा के अनन्त ज्ञान का अनुभव हमें सीधे रूप से नहीं हो सकता। वह ज्ञान हमें तभी प्राप्त हो सकता है जब वह बादलरूपी तीर्थंकर या सच्चा गुरु बनकर हमें अपनी ज्ञानमय
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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