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________________ 192 जैन धर्म : सार सन् श्रीगुरु के ही प्रताप से सन्तों का संग (सत्संग) मिलता है जिससे संसार का ताप (दुःख) मिट जाता है, अपने अन्दर ही आत्मस्वरूप की प्राप्ति हो जाती है और ज्ञान की प्रत्यक्ष पहचान हो जाती है। श्री गुरु अपना ध्यान कराते हैं, अपने प्रति प्रेम बढ़ाते हैं और जीव को अन्तर्मुखी ध्यान में लीन कराते हैं। तब जीव सहज ही आत्मरस की प्राप्ति करता है, कर्म-बन्धन को नष्ट करता है, अपने को अपने स्वरूप में लगाता है और अपने शुद्ध चैतन्यस्वरूप का ध्यान करता है। तब आनन्द उत्पन होता है जिसका रसास्वादन कर मन शान्त हो जाता है। इसे 'निज अनुभव' कहा जाता है। इस अनुभव को अपने से दूर कौन कह सकता है? यह (निज अनुभव) आवागमन के चक्र को मिटाता है, अलख को लखाता है, आत्मा के चैतन्य और आनन्दस्वरूप को प्रकट करता है और अविनाशी रस प्राप्त कराता है, जिसका मोक्षार्थी गुण-गान करते हैं, जिसकी अपार महिमा है और जिसे जान लेने पर संसार का भार दूर हो जाता है। श्रीगुरु की कृपा से आत्मा के इस विकाररहित अत्यन्त शुद्ध स्वरूप को जान लेना चाहिए।53* इस प्रकार यह स्पष्ट है कि किसी सन्त सद्गुरु की संगति मिलने पर ही जीव अपने स्वरूप की पहचान प्राप्त कर पाता है और संसार के दुःखों से छुटकारा पाकर मोक्ष-सुख को प्राप्त करने में सफल होता है। अब श्रीगुरु प्रताप तैं संत संग मिलाय, जारौं मिटै भवताप, आप आपही मैं पावै, ज्ञान लक्षण लखावै, आप चिंतन धरावै, निज परिणति बढ़ावै, निजमांहि लव लावै, सहज स्व-रस कौं पावै, कर्म बन्धन मिटावै, निज परिणति भाव आपमैं लगावै,वर चिद् गुण पर्यायकौं ध्यावै, तब हर्ष उपावै, मन विश्राम आवै, रसास्वादकौं जु पावै, निज अनुभव कहावै, ताकौं दूरि कौ (कौन) बतावै? भव-भांवरी घटावै, आप अलख लखावै, चिदानन्द दरसावै, अविनाशी रस पावै. जाको जस भव्य गावै. जाकी महिमा अपार, जानें मिटै भव भार, महा ऐसौ समयसार अविकार जानि लीजिये। (टिप्पणी 53 का मूल रूप)
SR No.007130
Book TitleJain Dharm Sar Sandesh
Original Sutra AuthorN/A
AuthorKashinath Upadhyay
PublisherRadhaswami Satsang Byas
Publication Year2010
Total Pages394
LanguageHindi
ClassificationBook_Devnagari
File Size21 MB
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