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जैन धर्म : सार सन्देश को सिद्ध कर लेता है। इसलिए परमार्थ के खोजी को चाहिए कि सद्गुरु के पास जाकर उनके उपदेश का लाभ उठावे और अपने प्रयोजन को सिद्ध करे। केवल शास्त्रों को पढ़ने से अपना प्रयोजन सिद्ध नहीं हो सकता। इसी तथ्य की ओर संकेत करते हुए कानजी स्वामी कहते हैं :
सर्व शास्त्रों का प्रयोजन यही है कि चैतन्यस्वरूप आनंदमय आत्मा को पहिचानकर उसमें लीन हो। शास्त्र का एक ही वाक्य सत्पुरुषों के पास से सुनकर यदि इतना समझ ले तभी उसका प्रयोजन सिद्ध है; और लाखों-करोड़ों शास्त्र सुनकर भी यही समझना है। यदि यह न समझे तो उस जीव ने शास्त्रों के एक शब्द को भी यथार्थ रूप से नहीं जाना है।
और जिस जीव को शास्त्र पढ़ना भी न आता हो, नव तत्त्वों के नाम नहीं जानता हो, तथापि यदि सत्पुरुष के निकट से श्रवण करके चैतन्य स्वरूप आत्मा का अनुभव कर लिया है तो उसके सर्व प्रयोजन की सिद्धि है।49
गुरु का दिया हुआ उपदेश अत्यन्त प्रभावकारी होता है। जब साधक उस उपदेश के अनुसार अभ्यास करता है तो उसे अपने स्वरूप का ज्ञान हो जाता है। अपने आनन्दमय स्वरूप का अनुभव होने पर वह अपने को संसार के अन्य सभी पदार्थों से भिन्न समझने लगता है और सांसारिक विषय-सुख से उदासीन हो मोक्ष-सुख में लीन हो जाता है। यह अनुपम सुख तपस्या आदि के रूखे साधनों से कभी प्राप्त नहीं हो सकता। जैनधर्मामृत में स्पष्ट कहा गया है:
जो पुरुष गुरु के उपदेश से, अभ्यास से और संवित्ति अर्थात् स्वानुभव से (आत्मानुभव से) स्व और पर के अन्तर (भेद) को जानता है वही पुरुष निरन्तर मोक्षसुख का अनुभव करता है। ___ उक्त प्रकार से जो अविनाशी आत्मा को शरीर से भिन्न नहीं जानता है वह घोर तपश्चरण करके भी मोक्ष को प्राप्त नहीं कर पाता।
संसार में अनासक्त रहनेवाले वीतरागी गुरु सभी सद्गुणों से परिपूर्ण होते हैं। वास्तव में वे चलते-फिरते परमात्मा ही होते हैं। वे सर्वसमर्थ और