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जैसे सबकी गठरी में लाल या मणि है, फिर भी सभी भ्रम में भूले हुए दुःख से परेशान हो रहे हैं। यदि गठरी खोलकर देख लें, तो सुखी हो जायेंगे। यदि अन्धा कुएँ में गिर पड़े तो कोई आश्चर्य नहीं। पर यदि
आँखवाला कुएँ में गिरे तो आश्चर्य है। उसी प्रकार यह जानने और देखनेवाली आत्मा संसाररूपी कुएँ में गिर पड़ी है, यह बड़े आश्चर्य की बात है। मोहरूपी ठग ने आत्मा के सिर पर अपनी ठगोरी (छलावा या भ्रान्ति) डाल रखी है जिससे संसाररूपी घर को ही अपना घर मानकर वह निज-घर को भूली हुई है। गुरु के ज्ञानमन्त्र द्वारा जब ठगोरी उतारी जाती है तभी वह निजघर को प्राप्त करती है। श्री गुरु उसे बार-बार निजघर को पाने का उपाय बताते हैं और उसे अपने अखण्ड सुख-भरे धाम को प्राप्त कर अविनाशी राज्य करने को कहते हैं। वे समझाते हैं कि अपने पापकर्म के कारण ही तू ने अपना राजपद खो दिया और अब कंगाल बनी कौड़ी-कौड़ी माँगती फिरती है। तेरा खज़ाना तेरे पास ही था, तू ने उसकी सँभाल न की। इसीलिए दुःखी बनी।48*
सद्गुरु (सन्त महात्मा), परमात्मस्वरूप का निजी अनुभव प्राप्त कर परमात्मरूप हो गये होते हैं। इसलिए उनसे प्राप्त दीक्षा और उपदेश का मोक्षार्थी के हृदय पर गहरा प्रभाव पड़ता है। वे ही शास्त्र का यथार्थ मर्म समझा सकते हैं। पर यदि कोई शास्त्रों को स्वयं पढ़कर परमार्थ के मर्म को ग्रहण करने की चेष्टा करता है तो उसे विफलता ही हाथ लगती है। इसके विपरीत, जो सद्गुरु से सुनकर और समझकर परमार्थ की साधना में लगता है, वह अपने प्रयोजन
* जैसैं सब जन की गांठड़ी मैं लाल (मणि) हैं, वै सब भ्रम से भूलकर मसकती होय रहे हैं।
जो गठड़ी खोलि देखें, तौ सुखी होंय। अन्धले तौ कूप मैं परै तौ अचिरज नहीं। देखता परै तो अचिरज । तैसैं आत्मा ज्ञाता द्रष्टा है, अरु संसार कूप मैं परै है,यह बड़ा अचिरज है। मोह ठग नैं ठगोरी इसके सिर डारी, तिस तैं पर घर ही कौं आपा मानि निजघर भूल्या है, ज्ञानमन्त्र तैं मोह ठगोरी नैं उतारै, तब निज घर कौं पावै। बार-बार श्रीगुरु निज घर पायवे को उपाय दिखाएँ हैं। अपने अखंडित उपयोग निधान कौं ले अविनाशी राज्य करि। तेरी हरामजादगी तैं अपना राजपद भूलि कौड़ी कौड़ी कौं जाच (मांग) कंगाल भया है। तेरा निधान ढिग ही था, रौं न संभाल्या। तारौं दुःखी भया। (टिप्पणी 48 का मूलरूप)